Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 120
________________ लोकव्यवस्था ( ३ ) तीसरा सिद्धान्त है कि प्रत्येक वस्तुमें स्वभावसिद्ध गति-शक्ति किंवा परिवर्तन-शक्ति अवश्य रहती है। अणुरूप द्रव्योंका जगत् बना करता है। उन अणुओंको आपसमें मिलने तथा एक-दूसरेसे अलग-अलग होनेके लिए जो गति मिलती रहती है वह उनका स्वभावधर्म है । उनको परिचालित करनेवाला, उनको इकट्ठा करनेवाला और अलग-अलग करनेवाला अन्य कोई नहीं है। इस विश्वमें जो प्रेरणा या गति है, वह वस्तुमात्रके स्वभावमेंसे निर्मित होती है। एकके बाद दूसरी गतिकी एक अनादि परम्परा इस विश्वमें विद्यमान है। यह प्रश्न ठीक नहीं है कि 'प्रारम्भमें इस विश्वमें कितने गति उत्पन्न की' । 'प्रारम्भमें' शब्दोंका अभिप्राय उस कालसे है जब गति नहीं थी, अथवा किसी प्रकारका कोई परिवर्तन नहीं था। ऐसे कालकी तर्कसम्मत कल्पना नहीं की जा सकती जब कि किसी प्रकारका कोई भी परिवर्तन न रहा हो। ऐसे कालकी कल्पना करनेका अर्थ तो यह मानना हुआ कि एक समय था, जब सर्वत्र सर्वशून्यता थी। जब हम यह कहते हैं कि कोई वस्तु है, तो वह निश्चय ही कार्यकारणभावसे बँधी रहती है । इसीलिए गति और परिवर्तनका रहना आवश्यक हो जाता है । सर्वशून्य स्थितिमेसे कुछ भी उत्पन्न नहीं हो सकता । प्रत्येक वस्तुको घटनामें दो प्रकारसे परिवर्तन होता है । एक तो यह है कि वस्तुमें स्वाभाविक रीतिसे परिवर्तन होता है । दूसरा यह कि वस्तुका उसके चारों ओरकी परिस्थितियोंका प्रभाव पड़नेसे परिवर्तन होता है । प्रत्येक वस्तु दूसरी वस्तुसे जुड़ी या संलग्न रहती है। यह संलग्नता तीन प्रकारकी होती है-एक वस्तुका चारों तरफकी वस्तुओंसे सम्बन्ध रहता है, दूसरी वह वस्तु जिस वस्तुसे उत्पन्न हुई है उसके साथ कार्यकारण-सम्बन्धसे जुड़ी रहती है। तीसरी उस वस्तुकी घटनाके गर्भमें दूसरी घटना रहती है और वह वस्तु तीसरी घटनाके गर्भमें रहती है। ये जो सारे वस्तुओंके सम्बन्ध हैं उनकी ठीकसे जानकारी हो जाने पर यह भ्रान्ति या आशंका दूर हो जाती है कि वस्तुओंकी गति किंवा क्रियाके लिए कोई पहला प्रवर्तक चाहिए। कोई भी क्रिया पहली नहीं हुआ करती। प्रत्येक गतिसे किंवा क्रियासे पूर्व दूसरी गति और क्रिया रहती है। इस क्रियाका स्वरूप एक स्थानसे दूसरे स्थानपर जाना ही नहीं होता। क्रिया-शक्तिका केवल स्थानान्तर होना या चलायमान होना ही स्वरूप नहीं है। बीजका अँखुआ बनता है और अँखुएका वृक्ष बन जाता है, ऑक्सीजन और हॉइड्रोजनका पानी बनता है, प्रकाशके अणु बनते हैं अथवा लहरें बनती हैं, यह सारा बनना और होना भी क्रिया ही है । इस प्रकारकी क्रिया वस्तुका मूलभूत स्वभाव है । वह यदि न रहता, तो जो पहली बार गति देता है उसके लिए भी वस्तुमें गति उत्पन्न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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