Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 123
________________ जैनदर्शन नहीं हो सकती । इसलिए पदार्थसे पहले किसी भी तरह किसी बुद्धिकी, किसी गतिकी संभावना हो ही नहीं सकती । इससे यह परिणाम निकलता है कि प्रकृतिसे परे न कुछ है और न हो सकता है । यदि ये चारों शिलान्यास यथार्थ बातें हैं तो प्रकृतिका कोई स्वामी नहीं । यदि पदार्थ और गति अनादि कालसे अनन्त काल तक हैं तो यह अनिवार्य परिणाम निकलता है कि कोई परमात्मा नहीं है और न किसी परमात्माने जगत्को रचा है और न कोई इसपर शासन करता है । ऐसा कोई परमात्मा नहीं, जो प्रार्थनाएँ सुनता हो । दूसरे शब्दोंमें इससे यह सिद्ध होता है कि आदमीको भगवान् से कभी कोई सहायता नहीं मिली, तमाम प्रार्थनाएँ अनन्त आकाशमें यों ही विलीन हो गईं । यदि पदार्थ और गति सदासे चली आई हैं तो इसका यह मतलब है कि जो संभव था वह हुआ है, जो संभव है वह हो रहा है और जो संभव होगा वही होगा । विश्वमें कोई भी बात यों ही अचानक नहीं होती । हर घटना जनित होती है । जो नहीं हुआ वह हो ही नहीं सकता था । वर्तमान तमाम भूतका अवश्यंभावी परिणाम है और भविष्यका अवश्यंभावी कारण । यदि पदार्थ और गति सदासे हैं तो हम यह कह सकते हैं कि आदमीका कोई चेतन रचयिता नहीं हुआ है, आदमी किसीकी विशेष रचना नहीं है । यदि हम कुछ जानते हैं तो यह जानते हैं कि उस देवी कुम्हारने, उस ब्रह्माने कभी मिट्टी और पानी मिला कर पुरुषों तथा स्त्रियोंकी रचना नहीं की और उनमें कभी जान नहीं फूँकी ।" समीक्षा और समन्वय——— भौतिकवादके उक्त मूल सिद्धान्तके विवेचनसे निम्नलिखित बातें फलित होती हैं ( १ ) विश्व अनन्त स्वतंत्र मौलिक पदार्थोंका समुदाय है । (२) प्रत्येक मौलिक में विरोधी शक्तियोंका समागम है, जिसके कारण उसमें स्वभावतः गति या परिवर्तन होता रहता है । (३) विश्वकी रचना योजना और व्यवस्था, उसके अपने निजी स्वभावके कारण है, किसी के नियन्त्रणसे नहीं । (४) किसी सत्का न तो सर्वथा विनाश होता है और सर्वथा असत्का उत्पाद ही । (५) जगत्का प्रत्येक अणु परमाणु प्रतिक्षण गतिशील याने परिवर्तनशील है । ये परिवर्तन परिणामात्मक भी होते हैं और गुणात्मक भी । (६) प्रत्येक वस्तु सैकड़ों विरोधी शक्तियों का समागम है । (७) जगत्का यह परिवर्तन चक्र अनादि-अनन्त है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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