Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 82
________________ भारतीय दर्शनको जैनदर्शनकी देन ४९ माना है। किसी भी ऐसे समयकी कल्पना नहीं की जा सकती कि जिस समय यहाँ कुछ न हो और न-कुछसे कुछ उत्पन्न हो गया हो। अनन्त 'सत्' अनादि कालसे अनन्त काल तक क्षण-क्षण विपरिवर्तमान होकर मूल धारामें प्रवाहित हैं। उनके परस्पर संयोग और वियोगोंसे यह सृष्टिचक्र स्वयं संचालित है। किसी एक बुद्धिमान्ने बैठकर असंख्य कार्य-कारणभाव और अनन्त स्वरूपोंकी कल्पना की हो और वह अपनी इच्छासे इस जगत्का नियन्त्रण करता हो, यह वस्तुस्थितिके प्रतिकूल तो है ही, अनुभवगम्य भी नहीं है । प्रत्येक 'सत्' अपनेमें परिपूर्ण और स्वतन्त्र है। प्रतिक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप स्वभावके कारण परस्पर प्रभावित होकर अनेक अवस्थाओंमें स्वयं परिवर्तित हो रहा है। यह परिवर्तन कहीं पुरुषकी बुद्धि, इच्छा और प्रयत्नोंसे बँधकर भी चलता है। इतना ही पुरुषका पुरुषार्थ और प्रकृतिपर विजय पाना है। किन्तु आज तकके विज्ञानका इतिहास इस बातका साक्षी है कि उसने अनन्त विश्वके एक अंशका भी पूर्ण पता नहीं लगाया और न उसपर पूरा नियंत्रण ही रखा है। आजतकके सारे पुरुषार्थ अनन्त समुद्रमें एक बुबुद्के समान हैं। विश्व अपने पारस्परिक कार्य-कारणभावोंसे स्वयं सुव्यवस्थित और सुनियंत्रित है। मूलतः एक सत्का दूसरे सत्पर कोई अधिकार नहीं है। चूंकि वे दो हैं, इसलिये वे अपनेमें परिपूर्ण और स्वतन्त्र हैं। सत् चाहे चेतन हो या अचेतन, अपनेमें अखण्ड और परिपूर्ण है । जो भी परिणमन होता है वह उसकी स्वभावभूत उपादान-योग्यताकी सीमामें ही होता है । जब अचेतन द्रव्योंकी यह स्थिति है तब चेतन व्यक्तियोंका स्वातन्त्र्य तो स्वयं निर्बाध है। चेतन अपने प्रयत्नोंसे कहीं अचेंतनपर एक हदतक तात्कालिक नियन्त्रण कर भी ले, पर यह नियन्त्रण सार्वकालिक और सार्वदेशिकरूपमें न सम्भव है और न शक्य ही। इसी तरह एक चेतनपर दूसरे चेतनका अधिकार या प्रभाव परिस्थिति-विशेषमें हो जाय, तो भी मूलतः उसका व्यक्तिस्वातन्त्र्य समाप्त नहीं हो सकता। मनुष्य अपने स्वार्थके कारण अधिक-से-अधिक भौतिक साधनों और अचेतन व्यक्तियोंपर प्रभुत्व जमानेकी चेष्टा करता है, पर उसका यह प्रयत्न सर्वत्र और सदाके लिये आज तक सम्भव नहीं हो सका है । इस अनादिसिद्ध व्यक्ति-स्वातन्त्र्यके आधारसे जैनदर्शनने किसी एक ईश्वरके हाथ इस जगत्की चोटी नहीं दी। सब अपनी-अपनी पर्यायोंके स्वामी और विधाता हैं । जब जीवित अवस्थामें व्यक्तिका अपना स्वातन्त्र्य प्रतिष्ठित है और वह अपने संस्कारोंके अनुसार अच्छी या बुरी अवस्थाओंको स्वयं धारण करता जाता है, स्वयं प्रेरित है, तब न किसी न्यायालयकी जरूरत है और न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174