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जैनदर्शन
अपनी अनेक प्रकारकी वासना के अनुसार वस्तुके स्वरूपको रंग-विरंगा, चित्रविचित्ररूप में आरोपित कर देखता है । अर्थात् ज्ञानी सत्यको जानता है, बनाता नहीं; जब कि अज्ञानी अपनी वासनाओंके अनुसार सत्यको बनाने का प्रयत्न करता है । यही कारण है कि अज्ञानी के कथनमें पूर्वापर विरोध पग-पगपर विद्यमान रहता है । दो अज्ञानियोंका कथन एक जैसा नहीं हो सकता, जब कि असंख्य ज्ञानियोंका कथन मूलरूपमें एक ही तरहका होता है । दो अज्ञानियोंकी बात जाने दीजिए, एक ही अज्ञानी कषायवश कभी कुछ कहता है और कभी कुछ । वह स्वयं विवाद और असंगतिका केन्द्र होता है ।
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मैं आगे धर्मज्ञता के दार्शनिक मुद्देपर विस्तार से लिखूँगा । यहाँ तो इतना ही निर्देश करना इष्ट है कि जैनदर्शनकी धर्मज्ञता और सर्वज्ञताकी मान्यताका यह tadiuयोगी तथ्य है कि पुरुष अपनी वीतराग और निर्मल ज्ञानकी दशामें स्वयं प्रमाण होता है । वह आत्मसंशोधनके मार्गका स्वयं साक्षात्कार करता है । अपने धर्मपथका स्वयं ज्ञाता होता है और इसीलिए मोक्षमार्गका नेता भी होता है । वह किसी अनादिसिद्ध अपौरुषेय ग्रन्थ या श्रुति - परम्पराका व्याख्याता या मात्र अनुसरण करनेवाला ही नहीं होता। यही कारण है कि श्रमण परम्परामें कोई अनादिसिद्ध श्रुति या ग्रन्थ नहीं है, जिसका अन्तिम निर्णायक अधिकार धर्ममार्ग में स्वीकृत हो । वस्तुतः शब्दके गुण-दोष वक्ता के गुण-दोष के आधीन हैं । शब्द तो एक निर्जीव माध्यम है, जो वक्ताके प्रभावको ढोता है । इसीलिए श्रमण परम्परामें शब्दकी पूजा न होकर, वीतराग - विज्ञानी सन्तोंकी पूजा की जाती है । इन सन्तोंके उपदेशोंका संग्रह ही 'श्रुत' कहलाता है, जो आगेके आचार्यों और साधकोंके लिए तभी तक मार्गदर्शक होता है जबतक कि वे स्वयं वीतरागता और निर्मल ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेते । निर्मल ज्ञानकी प्राप्तिके बाद वे स्वयं धर्ममें प्रमाण होते हैं । निग्गंठनाथपुत्त भगवान् महावीरकी सर्वज्ञ और सर्वदर्शीके रूपमें जो प्रसिद्धि थी कि वे सोते-जागते हर अवस्थामें जानते और देखते हैं - उसका रहस्य यह था कि वे सदा स्वयं साक्षात्कृत त्रिकालाबाधित धर्ममार्गका उपदेश देते थे । उनके उपदेशों में कहीं पूर्वापर विरोध या असंगति नहीं थी ।
निरीश्वरवाद :
आजकी तरह पुराने युगमें बहुसंख्या ईश्वरवादियोंकी रही है । वे जगत्का कर्ता और विधाता एक अनादिसिद्ध ईश्वरको मानते रहे । ईश्वरकी कल्पना भय और आश्चर्य से हुई या नहीं, हम इस विवादमें न पड़कर यह देखना चाहते हैं कि इसका वास्तविक और दार्शनिक आधार क्या है ? जैनदर्शन में इस जगत्को अनादि
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