Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 87
________________ ५४ जैनदर्शन परम्परा किसी समय दीपनिर्वाणकी तरह बुझ नहीं सकती। यह भाव उपरोक्त गाथामें 'भावस्स णत्थि णासो' पद द्वारा दिखाया गया है। कितना भी परिवर्तन क्यों न हो जाय, परिवर्तनोंकी अनन्त संख्या होनेपर भी वस्तुकी सत्ता नष्ट नहीं होती। उसका मौलिक तत्त्व अर्थात् द्रव्यत्व नष्ट नहीं हो सकता। अनन्त प्रयत्न करनेपर भी जगत्के रंगमंचसे एक भी अणुको विनष्ट नहीं किया जा सकता, उसकी हस्तीको नहीं मिटाया जा सकता। विज्ञानकी तीव्रतम भेदक शक्ति अणु द्रव्यका भेद नहीं कर सकती। आज जिसे विज्ञानने 'एटम' माना है और जिसके इलेक्ट्रान और प्रोट्रान रूपसे भेदकर वह यह समझता है कि हमने अणुका भेद कर लिया, वस्तुतः वह अणु न होकर सूक्ष्म स्कन्ध ही है और इसीलिए उसका भेद संभव हो सका है । परमाणुका तो लक्षण है : __ "अंतादि अंतमज्झं अंतंतं व इंदिए गेज्झं। . जं अविभागो दव्वं तं परमाणुं पसंसंति ॥" -नियमसा० गा० २६ । अर्थात्-परमाणुका वही आदि, वही अन्त तथा वही मध्य है । वह इन्द्रियग्राह्य नहीं होता। वह सर्वथा अविभागी है-उसके टुकड़े नहीं किये जा सकते । ऐसे अविभागी द्रव्यको परमाणु कहते हैं। "सव्वेसि खंधाणं जो अंतो तं वियाण परमाण। सो सस्सदो असद्दो एक्को अविभागि मुत्तिभवो ॥" -पंचा० १७७ । अर्थात्-समस्त स्कन्धोंका जो अन्तिम भेद है, वह परमाणु है। वह शाश्वत है, शब्दरहित है, एक है, सदा अविभागी है और मूर्तिक है । तात्पर्य यह कि परमाणु द्रव्य अखंड है और अविभागी है। उसको छिन्न-भिन्न नहीं किया जा सकता। जहाँ तक छेदन-भेदन सम्भव है वह सूक्ष्म स्कन्धका हो सकता है, परमाणुका नहीं। परमाणुकी द्रव्यता और अखण्डताका सीधा अर्थ है-उसका अविभागी एक सत्ता और मौलिक होना। वह छिद-भिदकर दो सत्तावाला नहीं बन सकता । यदि बनता है तो समझना चाहिए कि वह परमाणु नहीं है। ऐसे अनन्त मौलिक अविभागी अणुओंसे यह लोक ठसाठस भरा हुआ है। इन्हीं परमाणुओंके परस्पर सम्बन्धसे छोटे-बड़े स्कन्धरूप अनेक अवस्थाएँ होती हैं । परिणमनोंके प्रकार : सत्के परिणाम दो प्रकारके होते हैं-एक स्वभावात्मक और दूसरा विभावरूप । धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और असंख्यात कालाणुद्रव्य ये सदा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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