Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 98
________________ लोकव्यवस्था ६५ इसी नियतिवादका रूप आज भी 'जो होना है वह होगा ही' इस भवितव्यता के रूपमें गहराई के साथ प्रचलित है । नियतिवादका एक आध्यात्मिक रूप और निकला हैं । इसके अनुसार । प्रत्येक द्रव्यकी प्रतिसमयकी पर्याय सुनिश्चित है जिस समय जो पर्याय होनी है वह अपने नियत स्वभावके कारण होगी ही, उसमें प्रयत्न निरर्थक है । उपादानशक्ति ही वह पर्याय प्रकट हो जाती है, वहाँ निमित्तकी उपस्थिति स्वयमेव होती है, उसके मिलानेकी आवश्यकता नहीं । इनके मतसे पेट्रोलसे मोटर नहीं चलती, किन्तु मोटरको चलना ही है और पेट्रोलको जलना ही है । और यह सब प्रचारित हो रहा है द्रव्यके शुद्ध स्वभावके नामपर । इसके भीतर भूमिका यह जमाई जाती है कि -एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कुछ नहीं कर सकता । सब अपने आप नियतिचक्रवश परिणमन करते हैं । जिसको जहाँ जिस रूपमें निमित्त बनना है उस समय उसकी वहाँ उपस्थिति हो ही जायगी । इस नियतिवादसे पदार्थोंके स्वभाव और परिणमनका आश्रय लेकर भी उनका प्रतिक्षणका अनन्तकाल तकका कार्यक्रम बना दिया गया है, जिसपर चलनेको हर पदार्थ बाध्य है । किसीको कुछ नया करनेका नहीं है । इस तरह नियतिवादियोंके विविध रूप विभिन्न समयोंमें हुए हैं । इन्होंने सदा पुरुषार्थको रेड मारी है और मनुष्य को भाग्यके चक्कर में डाला है किन्तु जब हम द्रव्यके स्वरूप और उसकी उपादान और निमित्तमूलक कार्यकारणव्यवस्थापर ध्यान देते हैं तो इसका खोखलापन प्रकट हो जाता है । जगत् में समग्र भावसे कुछ बातें नियत हैं, जिनका उल्लंघन कोई नहीं कर सकता । यथा १. यह नियत है कि जगत् में जितने सत् हैं, उनमें कोई नया 'सत्' उत्पन्न नहीं हो सकता और न मौजूदा 'सत्' का समूल विनाश ही हो सकता है वे सत् हैं - अनन्त चेतन, अनन्त पुद्गलाणु, एक आकाश, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य और असंख्य कालद्रव्य । इनकी संख्यामें न तो एककी वृद्धि हो सकती है और न एककी हानि ही । अनादिकाल से इतने ही द्रव्य थे, हैं और अनन्तकाल तक रहेंगे । २. प्रत्येक द्रव्य अपने निज स्वभावके कारण पुरानी पर्यायको छोड़ता है, ग्रहण करता है और अपने प्रवाही सत्त्वकी अनुवृत्ति रखता है | चाहे वह शुद्ध हो या अशुद्ध, इस परिवर्तनचक्र से अछूता नहीं रह सकता । कोई भी किसी भी पदार्थ उत्पाद और व्ययरूप इस परिवर्तनको रोक नहीं सकता और न इतना १. देखो, श्रीकानजीस्वामी लिखित 'वस्तुविज्ञानसार' आदि पुस्तकें । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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