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जैनदर्शन
होती है और न उच्छिन्न ही । वेदान्ती इस जीवको ब्रह्मका प्रातिभासिक रूप मानता है तो चार्वाक इन सबसे भिन्न भूतचतुष्टयरूप ही आत्मा स्वीकार करत है— उसे आत्माके स्वतन्त्र तत्त्वके रूप में कभी दर्शन नहीं हुए । यह तो आत्माके स्वरूप-दर्शनका हाल है । अब उसकी आकृतिपर विचार करें, तो ऐसे ही अनेक दर्शन मिलते हैं । 'आत्मा अमूर्त या मूर्त होकर भी वह इतना सूक्ष्मतम है कि हमें इन चर्मचक्षुओं से नहीं दिखाई देता' इसमें सभी एकमत हैं । इसलिये कुछ अतीन्द्रियदर्शी ऋषियोंने अपने दर्शनसे बताया कि आत्मा सर्वव्यापक है, तो दूसरे ऋषियोंने उसका अणुरूप से साक्षात्कार किया, वह वटबीजके समान अत्यन्त सूक्ष्म है या अंगुष्ठमात्र है । 'कुछको देहरूप ही आत्मा दिखा' तो किन्हींको छोटे-बड़े देह आकार संकोच - विकासशील । विचारा जिज्ञासु अनेक पगडंडियोंवाले इस दश पर खड़ा होकर दिग्भ्रान्त हो जाता है । वह या तो दर्शनशब्दके अर्थ में ही शंका करता है या फिर दर्शनकी पूर्णतामें ही अविश्वास करने लगता है । प्रत्येक दर्शनका यही दावा है कि वही यथार्थ और पूर्ण है । एक ओर ये दर्शन मानवके मनन- तर्कको जगाते हैं, पर ज्यों ही मनन- तर्क अपनी स्वाभाविक खुराक माँगता है तो " तर्कोऽप्रतिष्ठः " " " तर्काप्रतिष्ठानात् " " " नैषा तर्केण मतिरपनेया" जैसे बन्धनोंसे उसका मुँह बन्द किया जाता है । 'तर्कसे कुछ नहीं हो सकता' इत्यादि तर्कनैराश्यका प्रचार भी इसी परम्पराका कार्य है । जब इन्द्रियगम्य पदार्थों में तर्ककी आवश्यकता नहीं और उपयोगिता भी नहीं है तथा अतीन्द्रिय पदार्थों में उसकी निःसारता एवं अक्षमता है तो फिर उसका क्षेत्र क्या बचता है ? आचार्य हरिभद्र तर्ककी असमर्थता बहुत स्पष्ट रूपसे बताते हैं
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"ज्ञायेरन् हेतुवादेन पदार्था यद्यतीन्द्रियाः ।
कालेनैतावता तेषां कृतः स्यादर्थनिर्णयः ।। " - योग दृष्टिस० १४५ ।
अर्थात् -- यदि हेतुवाद -- तर्कके द्वारा अतीन्द्रिय पदार्थोंका निश्चय करना शक्य होता तो आज तक बड़े-बड़े तर्कमनीषी हुए, वे इन पदार्थोंका निर्णय अभी तक कर चुके होते । परन्तु अतीन्द्रिय पदार्थोंके स्वरूपकी पहेली पहले से भी अधिक उलझी है । उस विज्ञानकी जय मानना चाहिये जिसने भौतिक पदार्थोंकी अतीन्द्रियता बहुत हद तक समाप्त कर दी है और उसका फैसला अपनी प्रयोगशालामें कर डाला है ।
१. महाभारत वनपर्व ३१३।११० । ३. कठोपनिषत् २|९|
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२. ब्रह्मसू० २।१।११।
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