Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 42
________________ सामान्यावलोकन है। जैसे क्षीरसमुद्रका जल घड़ेमें भर लेने पर मूलरूपमें वह समुद्रजल ही रहता है। दोनों परंपराओंका आगमश्रुत : वर्तमानमें जो आगमश्रुत श्वेताम्बर परम्पराको मान्य है उसका अंतिम संस्करण वलभीमें वीर निर्वाण संवत् ९८० में हुआ था। विक्रमकी ६वीं शताब्दीमें यह संकलन देवद्धिगणि क्षमाश्रमणने किया था। इस समय जो त्रुटितअत्रुटित आगम-वाक्य उपलब्ध थे, उन्हें पुस्तकारूढ़ किया गया। उनमें अनेक परिवर्तन, परिवर्धन और संशोधन हुए। एक बात खास ध्यान देनेकी है कि महावीरके प्रधान गणधर गौतमके होते हुए भी इन आगमोंकी परम्परा द्वितीय गणधर सुधर्मा स्वामीसे जुड़ी हुई है। जब कि दिगम्बर परम्पराके सिद्धान्तग्रन्थोंका सम्बन्ध गौतम स्वामीसे है। यह भी एक विचारणीय बात है कि श्वेताम्बर परम्परा जिस दृष्टिवाद श्रुतका उच्छेद मानती है उसी दृष्टिवाद श्रुतके अग्रायणीय और ज्ञानप्रवाद पूर्वसे षट्खंडागम, महाबन्ध, कसायपाहुड आदि दिगम्बर सिद्धान्त-ग्रन्थोंकी रचना हुई है। यानि जिस श्रुतका श्वेताम्बर परम्परामें लोप हुआ उस श्रुतकी धारा दिगम्बर परम्परामें सुरक्षित है और दिगम्बर परम्परा जिस अङ्गश्रुतका लोप मानती है, उसका संकलन श्वेताम्बर परम्परामें प्रचलित है। श्रुतविच्छेदका मूल कारण : इस श्रुत-विच्छेदका एक ही कारण है--वस्त्र । महावीर स्वयं निर्वस्त्र परम निर्ग्रन्थ थे, यह दोनों परम्पराओंको मान्य है। उनके अचेलक-धर्मकी सङ्गति आपवादिक वस्त्रको औत्सर्गिक मानकर नहीं बैठायी जा सकती। जिनकल्प आदर्श मार्ग था, इसकी स्वीकृति श्वेताम्बर परम्परा मान्य दशवैकालिक, आचाराङ्ग आदिमें होनेपर भी जब किसी भी कारणसे एक बार आपवादिक वस्त्र घुस गया तो उसका निकलना कठिन हो गया। जम्बूस्वामीके बाद श्वेताम्बर परम्परा द्वारा १. “तदेतत् श्रुतं द्विभेदमनेकभेदं द्वादशमेदमिति । किंकृतोऽयं विशेषः १ वक्तृविशेषकृतः । त्रयो वक्तारः-सर्वज्ञतीर्थकरः इतरो वा श्रुतकेवली, आरातीयश्चेति । तत्र सर्वशेन परमर्षिणा परमाचिन्त्यकेवलज्ञानविभूतिविशेषेण अर्थत आगम उपदिष्टः। तस्य प्रत्यक्षदर्शित्वात्प्रक्षीणदोषत्वाच्च प्रामाण्यम् । तस्य साक्षाच्छिष्यबुद्धयतिशयद्धिंयुक्तैर्गणधरैः श्रुतकेवलिभिरनुस्मृतग्रन्थरचनमङ्गपूर्वलक्षणम् तत्प्रमाणं, तत्प्रामाण्यात् । आरातीयैः पुनराचार्य: कालदोषात्सङ्क्षिप्तायुमतिबलशिष्यानुग्रहार्थ दशवैकालिकाद्य पनिबद्धम् , तत्प्रमाणमर्थतस्तदेवेदमिति क्षीरार्णवजलं घटगृहीतमिव ।”—सर्वार्थसिद्धि १।२० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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