Book Title: Jain Cosmology Sarvagna Kathit Vishva Vyavastha
Author(s): Charitraratnavijay
Publisher: Jingun Aradhak Trust
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જૈન કોસ્મોલોજી
પરિશિષ્ટ-૧
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॥ प. मंदरस्स णं भंते । पव्वयस्स कति नामधेज्जा पण्णत्ता ?
उ. गोयमा ! सोलस नामधेज्जा पण्णत्ता - तं जहा - (१) मंदर (२) मेरु (३) मणोरम (४) सुदंसण (५) सयंपभ (६) गिरिराया (७) रयणोच्चय (८) सीलोच्चय (९) मज्झे लोगस्स(१०) नाभी य, (११) अत्थे (च्छे) य, (१२) सूरियावत्ते (१३) सूरिया परणेति य (१४) उत्तमे य (१५) दिसादि अ (१६) वेडेंसेति अ सोलसो ॥
(श्री जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति/वक्ष-४/सूत्र-१०९) * समवायांग १४/सूत्र-३मां ५५। भेरु पर्वतमा १६ नमो छ - ७५२नी प्रथम ॥थान। 3-%81 ५६मi भेरुपर्वतर्नु माठनाम "सीलोच्चय" छ भने समवायांगमा "पियदंसण" छे. ते ४भ ... ॥ मंदरस्स णं पव्वयस्स सोलस नामधेया पण्णतं, तं जहा - मंदर, मेरु मणोरम, सुदंसण सयंपभे य गिरिराया। रयणुच्चय, पियदंसण, मज्झेलोगस्स नाभी य॥ अत्थे अ सूरिआवत्ते सूरिआवरणेति । उत्तरे अ दिसाई अ, वडिंसे इअ सोलसमे ॥ (समवायांग सूत्र/१६) ॥ प. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-मंदरे पव्वए मंदरे पव्वए ? उ. गोयमा ! मंदरे पव्वए मंदरे णाम देवे महिड्डिए जाव पलियोवमट्ठिइए परिवसइ । से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइमंदरे पव्वए, मंदरे पव्वए । अदुत्तरं च णं गोयमा ! सासए णामधेज्जे पण्णत्ते ॥
(श्री जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति/वक्ष-४/सूत्र-१०९) (२) अयं जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्राऽभिप्रायः ॥ समवायांगे तु अष्टत्रिंशत्तमे समवाये द्वितीयविभागः अष्टत्रिंशद्योजनसहस्त्राणि उच्चत्वेन भवति - इति उक्तम् ।। (३) दस एक्कारसभागा, नउया दस चेव जोयणसहस्सा । मूले विक्खंभ से, धरणियले दस सहस्साई ॥३०४॥ (४) जोयण सहस्समुवरिं, मूले इगतीसं जोयणसहस्सा । नवसय दसहिय तिन्निय, एक्कारस-भाग परिही से ॥३०५॥ (५) धरणीयले इगतीसं, तेवीसा छस्सया य परिही से । उवरि तिन्नि सहस्सा, बावटुं जोयणसयं च ॥३०६।। (६) मेरुस्स तिन्नि कंडा, पुढवोवलवइरसक्करा पढमे । रयए य जायरुवे, अंके फलिहे य बीयम्मि ॥३१२।। (७) एगागारं तइयं तं पुण जंबूणयामयं होइ ॥ जोयणसहस्स पढमं, बाहल्लेणं च बीयं तुं... ॥३१३।। तेवट्ठी सहस्साइं तइयं छत्तीसं जोयण सहस्सा । मेरुस्स उवरि चूला, उव्विद्धा जोयणदुवीसं ॥३१४।। (८) एवं सव्वग्गेणं, समूसिओ मेरु लक्खमइरित्तं । गोपुच्छसंठियम्मि ठियाइ चत्तारि य वणाई ॥३१५।। भूमीइ भद्दसालं, मेहलजुयलम्मि दोन्नि रम्माइं । नंदणसोमणसाइं, पंडगपरिमंडियं सिहरं ॥३१६।।
__ (श्री बृहत्क्षेत्र समास/भाग-१) अ प. मंदरे णं भंते ! पव्वए कइ वणा पण्णत्ता? उ. गोयमा ! चत्तारि वणा पण्णत्ता, तं जहा – (१) भद्दसालवणे (२) णंदणवणे (३) सोमणसवणे (४) पंडगवणे... ।।
(ठाणांग सूत्र/अध्य. ४/उ.२/सूत्र-२९९ ) + ( जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति/वक्ष. ४/सूत्र-१०३)
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