Book Title: Jain Cosmology Sarvagna Kathit Vishva Vyavastha
Author(s): Charitraratnavijay
Publisher: Jingun Aradhak Trust
________________
જૈન કોસ્મોલોજી
.............................................................५/२|शष्ट-१ (३) ततः क्षीरवरद्वीपात्परं क्षीरोधवारिधिः । कर्पूरपूरडिण्डीरपिण्डाडम्बरपाण्डुरः ।।९६।। त्रिभागावर्तितचतुर्भागसच्छर्करान्वितम् । स्वादनीयं दीपनीयं, मदनीयं वपुष्मताम् ।।९७।। बृंहणीय च सर्वांगेन्द्रियाह्लादकरं परं । वर्णगन्धरसस्पर्शसंपन्नमतिपेशलम् ॥९८ ।। ईदृग यच्चक्रिगोक्षीरं, तस्मादपि मनोहरम् । अस्य स्वादूदकमिति, क्षीरोदः प्रथितोऽम्बुधिः ।।९९।।
(श्री क्षेत्रलोकप्रकाश/सर्ग-२४) us तथा च जीवाजीवाभिगम सूत्रे - "खंडमच्छंडिओववेए रण्णो चाउरंतचक्कवट्टिस्से..." इत्यादि ।
(श्री जीवाजीवाभिगम सूत्र...) (४) एवं च लवणाम्बोधिः कालोदः पुष्करोदधिः । स्वयंभूर्वारुणीवाद्धिघृतक्षीरपयोनिधी ॥१२१।। एतान् विहाय सप्ताब्धीन् सर्वेऽप्यन्ये पयोधयः । तादृगिक्षुरसोत्कृष्टस्वादूदकमनोरमाः ॥१२२॥ (५) त्वगेलाकेसरैस्तुल्यं त्रिसुगन्धि त्रिजातकम् । मरिचैश्च समायुक्तं, चतुर्जातकमुच्यते ॥११९॥ ततश्च - चतुर्जातकसम्मिश्रात्रिभागावर्तितादपि । अतिस्वादुवारिरिक्षुरसादप्येष तोयधिः ॥१२०॥ (६) अतिपथ्यमतिस्वच्छं, जात्यं लघु मनोरमम् । स्फुटस्फटिकरत्नाभमस्य वारि सुधोपमम् ॥८२।।
(श्री क्षेत्रलोकप्रकाश/सर्ग-२४) (७२) तिर्शोभा रहेल द्वीप-समुद्रोनुं भाप... (१) जंबू-धायइ पुक्खर वारुणि-खीर-घय-खोय-नंदिसरा । अरुण-रुणवाय-कुंडल-संख-रुयग-भुयण-कुस-कुंचा ॥७०|| (सप्ततिशतकस्थानप्रकरणम्-३५) (२) पढमे लवणो जलहि, बीए कालो य पुक्खराईसु । दीवेसु हुंति जलहि, दीवसमाणेहिं नामेहिं ।।७१॥ (३) आभरण-वत्थ-गंधे, उप्पल-तिलए-नय पउम-निहि-रयणे । वासहर दह नइओ, विजया-वक्खार कप्पिदा ॥७२।। कुरु-मंदर-आवासा, कूडा नक्खत्त-चंद-सूरा य । अन्नेऽवि एवमाइ पसत्थ-वत्थूण जे नामा ॥७३॥ तन्नामा दीवुदही, तिपडोयाराय हुंति अरुणाई । जंबुलवणाईया पत्तेयं ते असंखिज्जा । ७४॥ ताणंतिम सूरवरावभासजलहि परं तु इक्किक्का । देवे नागे जक्खे भूये य सयंभूरमणे य ॥७॥
__ (बृहत्संग्रहणीसूत्र ७० थी ७५) + ( त्रैलोक्यदीपिका-९८ थी) (४) देवे नागे जक्खे, भूए य सयंभूरमणे य । इक्किक्के चेव भाणियव्वे तिपडोआरया नत्थि ॥
(देवेन्द्र नरकेन्द्र प्रकरणम् ) (५) उद्धारसागराणं, अड्डाइज्जाणं जत्तिया समया । एत्थ किर तिरियलोए, देवसमुद्दा उ एवइया ॥
(बृहत्क्षेत्रसमास-३) + ( त्रैलोक्यदीपिका-८५) + (चैत्यवंदन महाभाष्य-६५३)
(७३) उत्पात पर्वत (१) महावीर हैन विद्यालय प्रशित - वियापत्तिसुत्त प्रथम - पृ. ११०-१११मा .२/७.८/
- 309)
369
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530