Book Title: Jain Cosmology Sarvagna Kathit Vishva Vyavastha
Author(s): Charitraratnavijay
Publisher: Jingun Aradhak Trust
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જૈન કોસ્મોલોજી
४५०
पनो भेरु तथा तवसम्
विलेघरागरी गोप्रमानयंत्रम् मूलक विस्तार २०२२ योजन मस्तक विस्तार ४२४ योजन उपाई 1921 योजन
हिरिजंतूद्दीपनी दिसते पर्वतका मादी इहाँ ४४२ मोजन रखना गाएतलुंजल कप अनुयोजन५५ नागएतली जलनी वृद्धि दि वेदपर्वतमादिली दिसें लवणसमुशिखादिसन क्सेंचेस विजोजन पंचादायीयासत शिनागपा पीकपरिदीसेंबें इतिवेलंधराधिकार दिवेबपन्न अंतरही पनौ विचारक देंवें भरत क्षेत्रनेंनें दिम तक्षेत्र नौ विचिदिमवंतना माकुलगिरिखें नेद दिम |वेतपर्वत नीशाखारूप च्यार दादनीकलीबें बिसम्पूर्श्वमादि बियहिमसमुद्रमादिजग |तीक परीथईनें। समुद्रमा दिई में मुझेएकंच दतीवृक्षनीशाखासमुद्रमा दिजाई तिमपूर्वसमुद्रमादि. हिमवंत प दाग एक ईशान रूबी जीन्प्रनि
लवसमुद्रमां रहे वेलंधर + अनुवेलंधर पर्वतो...
योजनानां सहस्त्राणि दशमूले मुषे वि विस्तीर्णीमध्ये जागेच्क्षयोजन संमिता | ६६ एक प्रादेशिक्राश्रएण मूलादिवर्धमा स्प्रे मध्यावधि कावमिततस्तथादीयमा नाम ६१ इतिप्रवचन सारोदार वृत्तौ परमे ततदोपपद्यते यद्येषांमध्यदेशे दश योज सहस्त्रातिक्रमएव उत्जयतोमूलविक जाधिकायां पंचचत्वारीशसहस्त्ररूपाया विनवृद्धौ सत्यांयथोक्तौ लक्ष योजनरु। पोविकं यावत् लक्ष्योजन विनता स्या धन प्रदेश ध्यानपंचचत्वारिंशद्योज नत्र संपद्यतेः एवं दा निरपि सात्वेषांमध्ये | दशजोजन सहस्त्राणि याच त्रक्षयोज नवसताकाक्ता नहस्पते तद लंब श्रुताविदे॥ ॥श्री
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ललम मुद्दे नंदरामा
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પરિશિષ્ટ - ૨
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