Book Title: Jain Cosmology Sarvagna Kathit Vishva Vyavastha
Author(s): Charitraratnavijay
Publisher: Jingun Aradhak Trust
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જૈન કોસ્મોલોજી
પરિશિષ્ટ-૧
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भेरुना शिजर Gधर पांडवन... (१) सोमणसाओ तीसं, छच्चं सहस्से विलग्गिऊण गिरि । विमलजलकुंडगहणं हवइ वणं पंडगं सिहरे ॥३४६।। (२) चत्तारि जोयणसया, चउणउया चक्कवालओ रुदं । इगतीस जोयणसया, बासट्ठी परिरओ तस्स ॥३४७।। (३) पुंडा पुंडप्पभवा, सरत्त तह रत्तगावई चेव । खीररसा इक्खुरसा, अमयरसा वारुणी चेव ॥३५३।।
संखुत्तरा य संखा, संखवत्ता बलाहगा य तहा। पुप्फोत्तर पुप्फवई, सुपुप्फ तह पुप्फमालिणीया ॥३५४।। (४) पंडगवणम्मि चउरो, सिलासु चउसु वि दिसाए चुलाए। चउजोयसियाओ, सव्वज्जुणकंचणमयाओ ॥३५५।। पंचसयायामाओ, मज्झे दीहत्तणद्धरुंदाओ। चंदद्धसंठियाओ कुमुओयरहारगोराओ ॥३५६।।
___ (श्री बृहत्क्षेत्रसमास / भाग-१) ॥ प. पंडगवणे णं भंते ! कइ अभिसेअसिलाओ पण्णत्ताओ? उ. गोयमा ! चत्तारि अभिसेअसिलाओ पण्णत्ताओ, तं जहा – (१) पंडुसिला (२) पंडुकंबलसिला (३) रत्तसिला (४) रत्तकंबलसिलेत्ति ।।
(श्री जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति/वक्ष. ४/सूत्र-१०७) (५) एगत्थ पंडुकंबल-सिल त्ति अइपंडुकंबला बीया । रत्तात्तिरत्तकंबल-सिलाण जुयलं च रम्मयलं ॥३५७।। (६) पुव्वावरासु दो दो, सिलासु सिंहासणाइं रम्माइं । जम्माइ उत्तराए, सिलाइ इक्किक्कयं भणियं ॥३५८ ॥
(श्री बृहत्क्षेत्रसमास/भाग-१)
(४८) लवश समुद्र (१) पणनउइ सहस्साइं ओगाहित्ता चउदिसिं लवणं । चउरोऽलिंजरसंठाण संठिया ति पायाला ।।४(४०२)।। (२) वलयमुहे केऊए, जुयए तह ईसरे य बोद्धव्वे । सव्ववयरामयाणं, कूडा एएसि दससइया ॥५(४०३)। (३) जोयणसहस्सदसगं, मूले उवरिं च होति विच्छिन्ना । मज्झे य सयसहस्सं, तत्तियमेत्तं च ओगाढा ॥६(४०४)।। (४) अडयालीस सहस्सा, तेसीया छस्सया य नवलक्खा । लवणस्स मज्झपरिही, पायालमुहा दस सहस्सा ।।८(४०६)। (५) मज्झिलपरिरयाओ, पातालमुहेहि सुद्धसेसं जं । चउहि विहत्ते सेसं, जं लद्धं आंतरमुहाणं ॥९(४०७)।
सत्तावीस सहस्सा, दो लक्खा सत्तरं सयं चेगं । तिन्नेव चउब्भागा, पायालमुहंतर होइ ॥१०(४०८)।। (६) पलिओवमठिइयाए, एसिं अहिवई सुरा इणमो । कालो य महाकाले वेलंब पभंजणे चेव ।।११(४०९)।। (७) अन्नेऽवि य पायाला, खुड्डालिंजरसंठिया लवणे ॥ अट्ठसया चुलसीया, सत्त सहस्सा य सव्वेऽवि ॥१२(४१०)। (८) जोयणसय-विच्छिन्ना, मूलुवरिं दस सयाणि मज्झम्मि । ओगाढा य सहस्सं, दसजोयणिया य सिं कूडा ॥१३(४११)।। (९) पायालाण विभागा, सव्वाण वि तिन्नि तिन्नि विन्नेया । हिट्ठिमभागे वाऊ मज्झे वाऊ य उदगं च ॥१४(४१२)। उवरिं उदगं भणियं, पढमबीयेसु वाऊ संखुभिओ। उ8 वमेइ उदगं, परिवड्डइ जलनिही खुहिओ ॥१५(४१३)॥ परिसंठियंमि पवणे, पुणरवि उदगं तमेव संठाणं । वड्डेइ तेण उदही, परिहायइ अणुकमेणं च ॥१६(४१४)।
(श्री बृहत्क्षेत्र समास/भाग-२) अ हेट्ठिल्ले तिभागे वाऊकाए संचिट्ठइ, मज्झिल्ले विभागे वाउकाए आउक्काए य संचिट्ठइ, उवरिल्ले तिभागे आऊक्काए संचिट्ठइ... ॥
(श्री जीवाजीवाभिगम सूत्र...)
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