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दूसरा अध्याय : जैन श्रागम और उनकी टीकाएँ २७ प्रश्नीय ), जीवाभिगम, पन्नवणा (प्रज्ञापना)', सूरियपण्णत्ति ( सूर्यप्रज्ञप्ति), जम्बुद्दीवपण्णत्ति (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति), चन्दपण्णत्ति (चन्द्रप्रज्ञप्ति), निरयावलियाओ (निरयाललिका), कप्पवर्डवियाओ ( कल्पावतंसिका), पुफ्फियाओ (पुष्पिक) पुप्फचूलियाओ (पुष्पचूलिका), वहिदसाओ (वृष्णिदशा)।
१० पइन्ना :-चउसरण (चतुःशरण), आउरपञ्चक्खाण ( आतुरप्रत्याख्यान ), महापञ्चक्खाण ( महाप्रत्याख्यान), भत्तपरिण्णा ( भक्तपरिज्ञा ), तन्दुलवेयालिय ( तन्दुलवैचारिक ), संथारग ( संस्तारक ), गच्छायार (गच्छाचार), गणिविजा (गणिविद्या), देविन्दत्थय ( देवेन्द्रस्तव ), मरणसमाही ( मरणसमाधि )।
६ छेयसुत्त (छेदसूत्र ) :-निसीह ( निशीथ ), महानिसीह ( महानिशीथ ), ववहार ( व्यवहार) दसासुयक्खन्ध (दशाश्रुतस्कन्ध, अथवा आचारदशा), कम्प (कल्प, अथवा बृहत्कल्प ), पञ्चकप्प ( पञ्चकल्प, कहीं पर जीयकल्प= जीतकल्प)।
४ मूलसुत्त (मूलसूत्र) : उत्तरज्झयण ( उत्तराध्ययन), दसवेयालिय ( दशवैकालिक )", आवस्सय ( आवश्यक ), पिण्डनिजुत्ति (पिण्डनियुक्त, कहीं पर ओहनिजत्ति=ओघनियुक्ति)६।।
१. इसके लेखक आर्य श्याम माने गये हैं।
२. जैनमान्यता के अनुसार भद्रबाहु और वराहमिहिर दोनों प्रतिष्ठान के रहनेवाले ब्राह्मण थे । वराहमिहिर ने चन्द्र-सर्यप्रज्ञप्ति आदि आगम ग्रंथों के आधार से वाराहीसंहिता की रचना की, गच्छाचारवृत्ति, ६३-६ ।
३. लेखक वीरभद्र। ४. छेदसूत्र को उत्तम श्रुत माना गया है और इसे गोपनीय कहा है
तम्हा ण कहेयव्वं, आयरियेणं तु पवयणरहस्सं । खेत्तं कालं पुरिसं, नाऊण पगासए गुज्झ ।।
-निशीथचूर्णी १६.६१८४, ६२२७, ६२४३ । ५. लेखक शय्यंम्भव ।
६. कोई पिण्डनिज्जुत्ति और अोहनिज्जुत्ति के स्थान पर क्रमशः श्रोहनिज्जुत्ति और पक्खियसुत्त ( पाक्षिकसूत्र ) की मूलसूत्रों में गणना करते हैं । कहीं पर पिंडनिज्जुत्ति और श्रोहनिज्जुत्ति का छेदसूत्रों में अन्तर्भाव किया गया है। ... -