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. ३० जैन श्रागम साहित्य में भारतीय समाज
ज्योतिष्करंडक की टोका के कर्ता आचार्य मलयगिरि के अनुसार, अनुयोगद्वार आदि सूत्र माथुरी वाचना, और ज्योतिष्करंडक वलभी वाचना के आधार से संकलित किये गये हैं। इन दोनों वाचनाओं के पश्चात् 'आर्यस्कंदिल और नागार्जुन सूरि परस्पर मिल नहीं सके, अतएव जैन आगमों का वाचना-भेद स्थायी बना रहा। . तत्पश्चात्, महावीर-निर्वाण के लगभग ९८० या ९९३ वर्ष बाद (ईसवी सन् ४५३-४६६ ) वलभी में देवर्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में अंतिम सम्मेलन बुलाया गया जिसमें विविध पाठान्तर और वाचनाभेद आदि को व्यवस्थित कर, माथुरी वाचना के आधार से आगमों को संकलित कर उन्हें लिपिबद्ध किया गया ।' दृष्टिवाद फिर भी उपलब्ध न हो सका, अतएव उसे व्युच्छिन्न घोषित कर दिया गया। श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा मान्य वर्तमान आगम इसी अंतिम संकलना का परिणाम है।
आगमों का महत्व ये आगम महावीर भगवान के साक्षात् उपदेश माने जाते हैं जो सुधर्मा गणधर द्वारा प्रतिपादित किये गये हैं। इनके प्राचीन अंश क महावीर जितना हो प्राचीन समझना चाहिए। ईसवी सन् को पाँचवीं. शताब्दी में, वलभो में, आगमों का रूप सुनिश्चित करके उन्हें पुस्तक रूप में निबद्ध किया गया, अतएव इनका अन्तिम समय ईसवी सन् की पाँचवीं शताब्दी मानना. चाहिए। इस तरह हम देखते हैं कि इस विपुल साहित्य में लगभग १००० वर्ष की परम्परागत सामग्री संगृहीत है जो अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है।
आगम-साहित्य में जैन श्रमणों के आचार-विचार, व्रत-संयम, तप-त्याग, गमनागमन, रोग-चिकित्सा, विद्या-मन्त्र, उपसर्ग-दुर्भिक्ष
१. सम्भवतः इस समय आगम-साहित्य को पुस्तकबद्ध करने के सम्बन्ध में ही विचार किया गया । परन्तु हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में लिखा है कि नागार्जुन और स्कंदिल आदि आचार्यों ने आगमों को पुस्तकरूप में निबद्ध किया। फिर भी साधारणतया देवर्धिगणि ही 'पुत्थे आगमलिहिओ' के रूप में प्रसिद्ध हैं। मुनि पुण्यविजय, भारतीय जैन श्रमण, पृ० १७ ।
२. बौद्ध त्रिपिटक की तीन संगीतियों का उल्लेख बौद्ध ग्रंथों में मिलता है । पहली संगीति राजगृह में, दूसरी वैशाली में अ र अन्तिम संगीति सम्राट अशोक के राज्यकाल में, ईसवी सन् के पूर्व तीसरी शताब्दी में, पाटलिपुत्र में हुई थी।