Book Title: Jagadguru Shree Hirvijaysuriji ka Puja Stavanadi Sangraha
Author(s): Ratanchand Kochar
Publisher: Charitra Smarak Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ ( २ ) महाराज के पास पाटण शहर में दीक्षा स्वीकार की उस वक्त आपका नाम हीरहर्षमुनि रक्खा गया था। मुनिहीरहर्ष ने अल्प समय में ही अपने गुरूजी के पास से समग्र वाङ्गमय शास्त्र का अध्ययन किया, बाद में उसी समय महाराष्ट्र प्रांत की प्रसिद्ध नगरी देवगिरी में आप न्याय शास्त्र पढने के लिये गये। वहां अनेक तर्क शास्त्र, तर्क परिभाषा, मितभाषणी, शशधर मणिकण्ठ वरद दाजि, प्रशस्त पदभाष्य, वर्धभान, वर्धमानेदु, किरणावली,चिन्तामणि, प्रमुख ग्रन्थोंकाअध्ययन किया, न्याय शास्त्र के प्रकाण्ड एवं धुरीण विद्वान बन कर हीरहरेजी मरु देश में गुरूजी के पासआये। गुरुजी ने योग्यता देख कर वि. सं. १६०७ में नाडलाइ में पंडित पद, वि. सं. १६०८ में उपाध्याय पद, और वि. सं. १६१० में शिरोही में प्राचार्य पद दिया। प्राचार्य पद का उत्सव सुप्रसिद्ध राणपुर के मंदिर जी का निर्माता संघपति धरणशाहका वंशजऔर दूदाराजा का मंत्रीश्वर चांगा संघपति ने किया था। जिस दिन आप आचार्य पद से अलंकृत किये गये उसी दिन दूदा राजा ने राज्य में अहिंसा का पालन कराया था। वहां से आप पाटण पधारे और वहां के सूबेदार शेरखान के मंत्री समरथ भणसाली ने गच्छानुज्ञा का महोत्सव किया (जै. सा. सं. प.५३८) वि. सं. १६२१-२२ में वडाली में प्राचार्य श्री विजय दान सूरिजी का स्वर्गवास होने के बाद श्री हीरविजय सूरिजी तपागच्छ नायक एवं शासन सम्राट बने । वि. सं. १६२८ में श्रीविजयसेनसूरिजी को अहमदाबाद में प्राचार्यपद दिया, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62