Book Title: Jagadguru Shree Hirvijaysuriji ka Puja Stavanadi Sangraha
Author(s): Ratanchand Kochar
Publisher: Charitra Smarak Granthmala
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और उसी साल में लोंकागच्छ के मेघजीऋषि ने ३० साधुओं के साथ में लोकागच्छ की दीक्षा का त्याग कर श्री हीरविजयसूरीश्वरजी के पास में संवेग दीक्षा स्वीकार की, सूरिजी ने उनका नाम मुनिउद्योत विजय जी रखा, उसी समय अकबरने गुजरातको पूरा जीत लिया था जिससे उनके सूबेदार के साथ आगरा से सेठ थानसिंह जी यहां आये थे
और मेघजीकी संवेग दीताका उत्सव उन्होंने किया था। _ वि.सं. १६२८ से १६३८ के दशवर्ष के समय में सरिजी ने मुसलमान सूबेदारों के अनेक परिषह एवं उपसर्ग सहकर अपनी साधुता, सरलता, सजनता एवं उदार वीरता का काफी परिचय दिया। सुवर्ण को जितना भी तपाया जाय अपनी स्वरूपता को ही प्रकाशित करता है।
उसी समय भारतवर्ष का सर्वेसर्वा शहेनशाह बादशाह अकबर था, उसने अपनी राजधानी देहली से उठाकर आगरा में स्थापित की और खुद आगरा से १८ मील दूर फतेहपुर सीकरी में रहता था, सम्राट ने फतेहपुर सीकरी के पास में १२ कोश का विशाल डाबरसरोवर वनाया था,। अकबर ने अपने विनोद एवं धर्म बोध के लिये दीनालाही नामक ( ईश्वर का धर्म ) धर्म वि० सं० १६३५ चलाया था और अपनी राज सभा में अनेक धर्म के पंडितों को निमन्त्रण देकर बुलाये थे। निरंतर विविध धर्म गोष्ठी हो रही थी, एक दिन बादशाह अकबर ने
कहा "मेरे महामंडल में सर्व दर्शनों में प्रसिद्ध ऐसा कोई साधु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com