Book Title: Ishtopadesha
Author(s): Devnandi Maharaj, Shitalprasad, Champat Rai Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 15
________________ दिखाकर कहा कि वह माल अमुक किमतके बिना नहीं बेचनेकी शर्त की है और तूने यह क्या किया? यह सुनकर वह घबराया और श्रीमद्जीके पास जाकर गिड़गिड़ाने लगा कि मैं ऐसी आफतमें आ पड़ा हूँ। श्रीमद्जीने तुरन्त माल वापस कर दिया और पैसे गिन लिये । मानो कोई सौदा किया ही न था ऐसा समझकर होनेवाले बहुत नफेको जाने दिया । वह अरब श्रीमद्जीको खुदाके समान मानने लगा। इसी प्रकारका एक दुसरा प्रसंग उनके करुणामय और निःणही जीवनका ज्वलंत उदाहरण है। एक बार एक व्यापारी के साथ श्रीमद्जीने हीरोंका सौदा किया कि अमुक समयमें निश्चित किये हुए भावसे वह व्यापारी श्रीमद्जीको अमुक हीरे दे । उस विषयका दस्तावेज भी हो गया। परन्तु हुआ ऐसा कि मुद्दतके समय भाव बहुत बढ़ गये । श्रीमद्जी खुद उस व्यापारीके यहाँ जा पहुंचे और उसे चिन्तामग्न देखकर वह दस्तावेज फाड़ डाला और बोले-“भाई, इस चिट्ठी (दस्तावेज) के कारण तुम्हारे हाथ-पाँध बँधे हुए थे। बाजार भाव बढ़ जानेसे तुमसे मेरे साठ-सत्तर हजार रुपये लेने निकलते हैं, परन्तु मैं तुम्हारी स्थिति समझ सकता हूँ। इतने अधिक रुपये मैं तुमसे ले लूँ तो तुम्हारी क्या दशा हो? परन्तु राजचन्द्र दूध पी सकता है, खून नहीं।" वह व्यापारी कृतज्ञभावसे श्रीमद्जीकी ओर स्तब्ध होकर देखता ही रह गया । भविष्यवक्ता, निमित्तज्ञानी श्रीमद्जीका ज्योतिष-सम्बन्धी ज्ञान भी प्रखर था। वे जन्मकुंडली, वर्षफल एवं अन्य चिह्न देखकर भविष्यकी सूचना कर देते थे । श्री जूठाभाई (एक मुमुक्षु) के मरणके बारेमें उन्होंने सवा दो मास पूर्व स्पष्ट बता दिया था। एक बार सं० १९५५ की चैत वदी ८ को मोरबीमें दोपहरके ४ बजे पूर्व दिशाके आकाशमें काले बादल देखे और उन्हें दुष्काल पड़नेका निमित्त जानकर उन्होंने कहा- 'ऋतुको सन्निपात हुआ है ।" तदनुसार सं० १९५५ का चौमासा कोरा रहा और सं० १९५६ में भयंकर दुष्काल पड़ा । श्रीमद्जी दूसरेके मनकी बातको भी सरलतासे जान लेते थे। यह सब उनकी निर्मल आत्मशक्तिका प्रभाव था। कवि-लेखक श्रीमद्जीमें, अपने विचारोंकी अभिव्यक्ति पद्यरूपमें करनेकी सहज क्षमता थी। उन्होंने 'स्त्रीनीतिबोधक', 'सद्बोधशतक', 'आर्यप्रजानी पड़ती', 'हुन्नरकला वधारवा विषे' आदि अनेक कविताएँ केवल आठ वर्षकी वयमें लिखी थीं । नौ वर्षकी आयुमें उन्होंने रामायण और महाभारतकी भी पद्य-रचना की थी जो प्राप्त न हो सकी। इसके अतिरिक्त जो उनका मूल विषय आत्मज्ञान था उसमें उनकी अनेक रचनाएँ हैं । प्रमुखरूपसे 'आत्मसिद्धि', 'अमूल्य तत्त्वविचार', 'भक्तिना वीस दोहरा', 'परमपदप्राप्तिनी भावना (अपूर्व अवसर)', 'मूलमार्ग रहस्य', 'तृष्णानी विचित्रता' है । 'आत्मसिद्धि-शास्त्र के १४२ दोहोंकी रचना तो श्रीमद्जीने मात्र डेढ़ घंटेमें नडियादमें आश्विन वदी १ (गुजराती) सं० १९५२ को २९ वर्षकी उम्रमें की थी। इसमें सम्यग्दर्शनके कारणभूत छः पदोंका बहुत ही सुन्दर पक्षपातरहित वर्णन किया है। यह कृति नित्य स्वाध्यायको वस्तु है। इसके अंग्रेजीमें भी गद्यपद्यात्मक अनुवाद प्रगट हो चुके हैं । गद्य-लेखनमें श्रीमद्जीने 'पुष्पमाला', 'भावनाबोध' और 'मोक्षमाला' की रचना की। इसमें 'मोक्षमाला' तो उनकी अत्यन्त प्रसिद्ध रचना है जिसे उन्होंने १६ वर्ष ५ मासकी आयमें मात्र तीन दिनमें लिखी थी। इसमें १०८ शिक्षापाठ हैं । आज तो इतनी आयुमें शुद्ध लिखना भी नहीं आता जब कि श्रीमदजीने एक अपूर्व पुस्तक लिख डाली । पूर्वभवका अभ्यास ही इसमें कारण था । 'मोक्षमाला'के सम्बन्धमें श्रीमदजी लिखते हैं-"जैनधर्मको यथार्थ समझानेका उसमें प्रयास किया है, जिनोक्त मार्गसे कुछ भी न्यूनाधिक उसमें नहीं कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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