Book Title: Ishtopadesha
Author(s): Devnandi Maharaj, Shitalprasad, Champat Rai Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 37
________________ २ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ श्लोक "जो संसार में रहनेवाला जीव है, उसका परिणाम ( रागद्वेष आदिरूप परिणमन ) होता है, उस परिणामसे कर्म बँधते हैं, बँधे हुए कर्मोंके उदय होनेसे मनुष्यादि गतियोंमें गमन होता है, मनुष्यादि गतिमें प्राप्त होनेवालेको ( औदारिक आदि ) शरीरका जन्म होता है, शरीर होने से इंद्रियोंको रचना होती है, इन इंद्रियोंसे विषयों ( रूप- रसादि ) का ग्रहण होता है, उससे फिर राग और द्वेष होने लग जाते हैं । इस प्रकार जीवका संसाररूपी चक्रवाल में भवपरिणमन होता रहता है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है । जो अनादिकालसे होते हुए अनन्तकालतक होता रहेगा । हाँ, किन्हीं भव्य जीवोंके उसका अन्त भो हो जाता है । " ॥ ११ ॥ दोहा - मथत दूध डोरी नितें, दंड फिरत बहु बार । राग द्वेष अज्ञानसे, जीव भ्रमत संसार ॥ ११ ॥ उत्थानिका - यहाँ पर शिष्य पूछता है कि स्वामिन्! माना कि मोक्षमें जीव सुखो रहता है, किन्तु संसार में भी यदि जीव सुखी रहे तो क्या हानि है ? कारण कि संसारके सभी प्राणी सुखको ही प्राप्त करना चाहते हैं । जब जीव संसारमें ही सुखी हो जाँय तो फिर संसार में ऐसी खराबी है ? जिससे कि संत पुरुष उसके नाश करनेके लिये प्रयत्न किया करते हैं ? इस विषय में आचार्य कहते हैं - हे वत्स - विपद्भवपदावर्ते, पदिकेवातिवाह्यते । यावत्तावद्भवन्त्यन्याः, प्रचुरा विपदः पुरः ॥ १२ ॥ अन्वय-यावत् भवपदावर्ते पदिका इव विपत् अतिवाह्यते तावत् अन्याः प्रचुराः विपदः पुरः भवन्ति । टीका - यावदतिवाह्यते अतिक्रम्यते प्रेर्यते । कासौ, विपत् सहजशारीरमानसागन्तुकानामापदां मध्ये या काप्येका विवक्षिता आपत् । जीवेनेति शेषः । क्व भवपदावर्ते भवः संसारः पदावर्त इव पादचाल्यघटीयन्त्रमिव भूयोभूयः परिवर्तमानत्वात् । केव, पदिकेव' पादाक्रान्तदण्डिका यथा तावद् भवन्ति । का, अन्या अपूर्वाः प्रचुरा यो विपदः आपदः पुरो अग्रे जीवस्य यदि । का इव काछिकस्येति सामर्थ्यादुर्व्या । अतो जानीहि दुःखैकनिबन्धनविपत्तिनिरन्तरत्वात् संसारेऽवश्यविनाश्यत्वम् । पुनः शिष्य एवाहन सर्वे विपद्वन्त ससंपदोऽपि दृश्यन्त इति भगवन् समस्ता अपि संसारिणो न विपत्तियुक्ताः सन्ति, सश्रीकाणामपि केषांचिद् दृश्यमानत्वादित्यत्राह अर्थ - जबतक संसाररूपी पैरसे चलाये जानेवाले घटीयंत्र में एक पटली सरीखी एक विपत्ति भुगतकर तय की जाती है कि उसी समय दूसरी दूसरी बहुतसी विपत्तियाँ सामने आ उपस्थित हो जाती हैं । विशदार्थ — पैर से चलाये जानेवाले घटीयंत्रको पदावर्त कहते हैं, क्योंकि उसमें बार बार परिवर्तन होता रहता है। सो जैसे उसमें पैरसे दबाई गई लकड़ो या पटलीके व्यतीत हो जाने के बाद दूसरी पटलियाँ आ उपस्थित होती हैं, उसी तरह संसाररूपी पदावर्त में एक विपत्तिके बाद दूसरी बहुतसी विपत्तियाँ जीवके सामने आ खड़ी होती हैं । १ आकस्मिकागत । ३ एक यंत्रविशेष, जो पानी उलीचनेके काम आता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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