Book Title: Ishtopadesha
Author(s): Devnandi Maharaj, Shitalprasad, Champat Rai Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 52
________________ २५ । इष्टोपदेशः नहीं । कदाचित् तुम कहो कि ऐसा क्यों ? आचार्य कहते हैं कि वत्स ! सुनो, क्योंकि एकदेशमें सम्बन्ध छूटजाना, इसीको निर्जरा कहते हैं। वह निर्जरा कर्मकी (चित्सामान्यके साथ अन्वयव्यतिरेक रखनेवाले पुद्गलोंके परिणामरूप द्रव्यकर्मकी) हो सकती है। क्योंकि संयोगपूर्वक विभाग दो द्रव्योंमें ही बन सकता है। अब जरा बारीक दृष्टिसे विचार करो कि उस समय जब कि योगी पुरुष स्वरूपमात्रमें अवस्थान कर रहा है, उस समय द्रव्यकर्मका आत्माके साथ संयोगादि सम्बन्धोंमेंसे कौन-सा सम्बन्ध हो सकता है ? मतलब यह है कि किसी तरहका सम्बन्ध नहीं बन सकता । जिस समय आत्मा ही ध्यान और ध्येय हो जाता है, उस समय हर तरहसे आत्मा परद्रव्योंसे व्यावृत होकर केवलस्वरूप में ही स्थित हो जाता है। तब उसका दूसरे द्रव्यसे सम्बन्ध कैसा ? क्योंकि सम्बन्ध तो दोमें रहा करता है, एकमें नहीं होता है । यह भी नहीं कहना कि इस तरहकी अवस्था संसारीजीवमें नहीं पाई जाती । कारण कि संसाररूपी समुद्र-तटके निकटवर्ती अयोगोजनोंका मुक्तात्माओंकी तरह पंच ह्रस्व अक्षर (अ इ उ ऋट) के बोलनेमें जितना काल लगता है, उतने कालतक वैसा (निर्बन्ध-बन्ध रहित) रहना सम्भव है। शीघ्र हो जिनके समस्त कर्मोंका नाश होनेवाला है, ऐसे जीवों (चौदहवें गुणस्थानवाले जीवों) में भो उत्कृष्ट शुक्लेश्याके संस्कारके वशसे उतनी देर (पंच ह्रस्व अक्षर बोलनेमें जितना समय लगता है, उतने समय) तक कर्मपरतन्त्रताका व्यवहार होता है जैसा कि परमागममें कहा गया है"सीलेसि संपत्तो." __ "जो शीलोंके ईशत्व (स्वामित्व) को प्राप्त हो गया है, जिसके समस्त आस्रव रुक गये हैं, तथा जो कर्मरूपी धूलीसे रहित हो गया है, वह गतयोग-अयोगकेवली होता है" ॥२४॥ दोहा-परिषहादि अनुभव बिना, आतम-ध्यान प्रताप । शीघ्र ससंवर निर्जरा, होत कर्मकी आप ॥२४॥ उपरिलिखित अर्थको बतलानेवाला और भी श्लोक सुनो कटस्थ कर्ताहमिति, संबंधः स्याद् द्वयोर्द्वयोः । ध्यानं ध्येयं यदात्मैव, संबन्धः कीदृशस्तदा ॥२५॥ अन्वय-अहं कटस्य कर्ता इति द्वयोर्द्वयोः संबन्धः स्यात्, यदा आत्मैव ध्यानं ध्येयं तदा कीदृशः सम्बन्धः । टीका-स्याद् भवेत् । कोसौ, संबन्धः द्रव्यादिना प्रत्यासत्तिः । कयोद्धयोः कथंचिद् भिन्नयोः पदार्थयोः इति अनेन लोकप्रसिद्धेन प्रकारेण कमिति यथाहमस्मि । कीदृशः, कर्ता निर्माता । कस्य, कटस्य वंशदलानां जलादिप्रतिबन्धाद्यर्थस्य परिणामस्य । एवं संबन्धस्य द्विष्ठतां प्रदर्य प्रकृतेर्व्यतिरेकमाह । ध्यानमित्यादि ध्यायते येन ध्यायति वा यस्तद्धचानं ध्यातिक्रियां प्रति करणं कर्ता वा । उक्तं च"ध्यामते मेन तद्धवानं, यो ध्यामति स एब वा । यत्र वा ध्यायते यद्वा, ध्यातिर्वा ध्यानमिष्यते ?"॥६७॥ -तत्त्वानुशासनम् । ध्यायत इति ध्येयं वा ध्यातिक्रियया ध्याप्यं । यदा यस्मिन्नात्मनः परमात्मना सहकीकरणकाले आत्मैव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124