Book Title: Ishtopadesha
Author(s): Devnandi Maharaj, Shitalprasad, Champat Rai Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 64
________________ ३६ ] इष्टोपदेशः दोहा-मूर्ख न ज्ञानी हो सके, ज्ञानी मूर्ख न होय। . निमित्त मात्र पर जान, जिमि गति धर्मतें होय ॥३५॥ अब शिष्य कहता है कि 'अभ्यास कैसे किया जाता है ?' इसमें अभ्यास करनेके उपायोंको पूछा गया है । सो अभ्यास और उसके उपायोंको कहते हैं। बार-बार प्रवृत्ति करनेको अभ्यास कहते हैं । यह बात तो भलीभाँति प्रसिद्ध ही है। उसके लिये स्थान कैसा होना चाहिए ? कैसे नियमादि रखने चाहिये ? इत्यादि रूपसे उसका उपदेश किया जाता है। इसी प्रकार साथमें संवित्तिका भी वर्णन करते हैं । अभवच्चित्तविक्षेप, एकान्ते तत्त्वसंस्थितः । अभ्यस्येदभियोगेन, योगी तत्त्वं निजात्मनः ॥३६॥ अन्वय-अभवच्चित्तविक्षेपः तत्त्वसंस्थितः योगी निजात्मनः तत्त्वं एकान्ते अभियोगेन अभ्यस्येत् । _____टीका-अभ्यस्येद्भावयेत्कोऽसौ, योगी संयमी। किं, तत्त्वं याथात्म्यं । कस्य, निजात्मनः । केन, अभियोगेन आलस्यनिद्रादिनिरासेन । क्व, एकान्ते योग्यशून्यगृहादौ । किंविशिष्टः सन्, अभवन्नजायमानश्चिसस्य मनसो विक्षेपो रागादिसंक्षोभो यस्य सोऽमित्थंभूतः सन् । किंभूतो भूत्वा, तथाभूत इत्याह । तत्त्वसंस्थितस्तत्त्वे हेये उपादेये च गुरूपदेशान्निश्चलधीः यदि वा तत्त्वेन साध्ये वस्तुनि सम्यक् स्थितो यथोक्तकायोत्सर्गादिना व्यवस्थितः । अथाह शिष्यः संवित्तिरिति । अभ्यासः कथमित्यनुवय॑ते नायमर्थः संयम्यते । भगवन्नुक्तलक्षणा संवित्तिः प्रवर्तमाना केनोपायेन योगिनो विज्ञायते कथं च प्रतिक्षणं प्रकर्षमापद्यते । अत्राचार्यों वक्ति । उच्यत इति । धीमन्नाकर्णय वय॑ते तल्लिङ्गं तावन्मयेत्यर्थः ॥३६॥ ____ अर्थ-जिसके चित्तमें क्षोभ नहीं है, जो आत्मा-स्वरूप में स्थित है, ऐसा योगी सावधानीपूर्वक एकान्त स्थानमें अपने आत्माके स्वरूपका अभ्यास करे । विशदार्थ-नहीं हो रहे हैं चित्तमें विक्षेप-रागादि विकल्प जिसको ऐसा तथा हेय-उपादेय तत्त्वोंमें गुरुके उपदेशसे जिसकी बुद्धि निश्चल हो गई है, अथवा परमार्थरूपसे साव्यभूत वस्तुमें भले प्रकारसे-यानी जैसे कहे गये हैं, वैसे कायोत्सर्गादिकोंसे व्यवस्थित हो गया है, ऐसा योगी अपनी आत्माके ठीक-ठीक स्वरूपका एकान्त स्थानमें-योगीके लिये योग्य ऐसे शून्य गृहोंमें, पर्वतोंकी गुहाकंदरादिकोंमें, आलस्य-निद्रा आदिको दूर करते हुए अभ्यास करे ॥३६॥ दोहा-क्षोभ रहित एकान्तमें, तत्त्वज्ञान चित धाय । सावधान हो संयमी, निज स्वरूपको भाय ॥३६॥ यहाँपर शिष्य पूछता है, कि भगवन् ! जिसका लक्षण कहा गया है ऐसी 'संवित्ति हो रही है। यह बात योगीको किस तरहसे मालूम हो सकती है ? और उसकी हरएक क्षणमें उन्नति हो रही है, यह भी कैसे जाना जा सकता है ? आचार्य कहते हैं कि हे धीमन् ? सुनो मैं उसके चिह्नका वर्णन करता हूँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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