Book Title: Ishtopadesha
Author(s): Devnandi Maharaj, Shitalprasad, Champat Rai Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 79
________________ परिशिष्ट नं. २- गुजराती पद्यानुवाद परीषहो जणाये ना, मग्न अध्यात्ममां थतां, आत्रवो रोकती थाये कर्मनी शीघ्र निर्जरा ॥२४॥ कर्ता हुं सादडीलो त्यां छे संबंध जुदो कह्यो; ध्यान ध्येय स्वयं आत्मा त्यां संबंध कयो रह्यो ?॥२५॥ ममताथी जीवने बंध, मुक्ति निर्ममता थकी, माटे सर्व प्रयत्ने ए, ध्यावो निर्ममता नको ॥ २६ ॥ गिर्मम एक हुं शुद्ध, ज्ञानो योगीन्द्र गोचर; सर्वे संयोगी भावो ते, स्वात्माथी सर्वथा पर ॥२७॥ दुःखना डुंगरो वेदे, जीवो संयोग कारणे; मन वाणी तनु कर्मे तनुं संयोग सर्वने ॥२८॥ मने ना मृत्यु, भीति शी ? मने ना रोग, शी व्यथा ? ना हुं तरुण, ना वृद्ध, बाल ना पुद्गले बधां ॥ २९ ॥ मोहधी भोगवी छोड्यां, पुद्गलो सौ फरी फरी; हवे ए एंठमां मारे, ज्ञानीने शी स्पृहा वळी ? ॥३०॥ कर्मो कर्महित ताके जीवो इच्छे स्वश्रेयने; स्व स्व प्रभावयोगे सौ, साधे कोण न स्वार्थने ? ॥३१॥ देहादि अन्यना अज्ञ उपकारे शी वर्तना ! लोकवत् स्वार्थ साधी ले, त्याज्य अन्योपकार हा ! ॥३२॥ गुरुबोधे, स्वअभ्यासे, स्वानुभूतिथी जाणता; आत्मा ने अन्यतो भेद, ते मुक्ति-सुख माणता ॥३३॥ स्वयं सत्नी करे इच्छा, स्वयं ज्ञापक श्रेधनो; स्वयं स्वधेयमां वर्ते, स्वयमेव गुरु स्वनो ॥३४॥ पामे ना ज्ञानता अज्ञ, ज्ञानी ना अज्ञता ग्रहे; निमित्तमात्र बीजा तो, गतिमां धर्मवत्, बने ॥३५॥ शमावी चित्तविक्षेपो, एकांते लोन आत्ममां; अभ्यासे उद्यम योगी, सहजातमतत्त्वता ॥३६॥ अनुभूति निजात्मानी, जेम जेम प्रकाशती; तेम तेम छता भोगे, स्वयं रुचि विरामती ॥३७॥ जेम जेम छता भोगे, स्वयं रुचि विरामती; तेम तेम अनुभूति परात्मानी थती छती ॥३८॥ समस्त विश्वने भाले, इन्द्रजाळ समुं वृथा; आत्म-लाभ सदा इच्छे, पस्ताये परमां जतां ॥३९॥ इच्छे एकांतमां वास, चाहे निर्जनता सदा; वदे कार्यवशे किंचित्, तेय शीघ्र भूली जता ॥४०॥ बोले तोये न बोले ते, चाले तोये न चालता; स्थिरता आत्मतत्त्वे जो देखे तोये न देखता ॥४१॥ विचारेनाशु आ के कोनु क्यांथी वळी कहीं ? योंगी तो योगमां लीन, देहभानेय ज्यां नहीं ॥४२॥ जेमां जे वसी रहे छे, त्यां ते रति करे अति; जेमां रमणता जेनी, त्यांथी अन्यत्र ना गति ॥४३॥ अन्यत्र नागति तेथी अन्यने ना अनुभवे, अनन्य उपयोगी तें, अबंध मुक्ति भोगवे ॥४४॥ अन्य ते अन्य, त्यां दुःख, आत्मा आत्मा ज ते सुखी; आत्मार्थे ज महात्मानी, साधना सर्वतोमुखी ॥४५॥ अज्ञ जे पुद्गलद्रव्ये राचे ते पुद्गलो पछ; तेनो पीछो तजे नांहीं कदी चतुर्गतिमहीं ॥४६॥ ध्यानमा मग्नता ज्यां त्यां, बाह्य व्यापारशून्यता; ध्यानयी योगी आस्वादे, सच्चिदानंद व्यक्तता ॥४७॥ कर्म - राशि दहे नित्य, ते आनंद हुताशन; खेद ना पामता योगी, बाह्य दुःखे अचेतन ॥४८॥ अविद्या भेदती ज्योति, परं ज्ञानमयी महा; मुमुक्षु मात्र ए पूछे, इच्छे, अनुभवे सदा ॥ ४९ ॥ आत्मा ने पुद्गल जुदां, मात्र आ सार तत्त्वनो; अन्य जे कांई शास्त्रोक्त, आनो विस्तार ते गणो ॥५०॥ वसन्ततिलका ५६ Jain Education International इष्टोपदेश मतिमान भणी यथार्थ, मानापमान समताथी सहे कृतार्थ; निराग्रही वन विषे जनमां वसे वा, पामे अनूप शिवसंपद भव्य तेवा ॥५१॥ सबोध सद्गुरुतो जीव जे उपासे, तेने निजात्म थकी पुद्गल भिन्न भासे; स्वानुभवे सहज आत्मस्वरूप राजे, ते सौख्य-धाम परमात्मपदे विराजे ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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