Book Title: Ishtopadesha
Author(s): Devnandi Maharaj, Shitalprasad, Champat Rai Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 61
________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ श्लोक टोका-यो जानाति । किं तत्स्वपरान्तरं आत्मपरयोर्भेदं यः स्वात्मानं परस्माद्धिनं पश्यतीत्यर्थः । कुतः संवित्तेर्लक्षणतः स्वलक्ष्यानुभवात् । एषोपि कुतः, अभ्यासात् अभ्यासभावनातः । एषोऽपि गुरूपदेशात् धर्माचार्यस्यात्मनश्च सुदृढस्वपरविवेकज्ञानोत्पादकवाक्यात स तथान्यापोढस्वात्मानुभविता मोक्षसौख्यं निरन्तरमविच्छिन्नमनुभवति । कर्मविविक्तानुभाव्यविनाभावित्वात्तस्य । तथा चोक्तं तत्त्वानुशासने,"तदेवानुभवंश्चायमेकाग्रं परमृच्छति । तथात्मधीनमानन्दमेति वाचामगोचरम्"-तत्त्वानुशासनम् । ॥१७०॥ अथ शिष्यः पृच्छति-कस्तत्र गुरुरिति तत्र मोक्षसुखानुभवविषये । गुरुराह-॥३३॥ अर्थ-जो गरुके उपदेशसे अभ्यास करते हुए अपने ज्ञान ( स्वसंवेदन ) से अपने और परके अन्तरको ( भेदको ) जानता है । वह मोक्षसम्बन्धी सुखका अनुभव करता रहता है । विशदार्थ-गुरु कहिये धर्माचार्य अथवा गुरु कहिये स्वयं आत्मा, उसके उपदेशसे सुदृढ़ स्वपर विवेक ज्ञानके पैदा करनेवाले वाक्योंके और उसके अनुसार अभ्यास करना चाहिये । बार-बार अभ्यास करनेसे संवित्ति-अपने लक्ष्यका अनुभव होने लगता है। उस संवित्ति (स्वसंवेदन) के द्वारा जो स्वात्माको परसे भिन्न जानता देखता है, भिन्न आत्माका अनुभव करनेवाला मोक्ष-सुखको निरन्तर-हमेशा विच्छेद रहित अनुभव करने लग जाता है। क्योंकि वह मोक्ष-सुखका अनुभव, कर्मोंसे भिन्न आत्माका अनुभव करनेवालोंको होता है, अन्योंको नहीं। जैसा कि तत्त्वानुशासनमें कहा है-"तदेवानुभंवश्चाय०," उस आत्माका अनुभव करते हुए यह आत्मा, उत्कृष्ट एकाग्रताको प्राप्त कर लेता है, और इस तरह मन तथा वाणोके अगोचर अथवा वचनोंसे भी न कहे जा सकनेवाले स्वाधीन आनन्दको प्राप्त कर लेता है ॥३३।। दोहा-गुरु उपदेश अभ्याससे, निज अनुभवसे भेद । निज-परको जो अनुभवे, लहै स्वसुख बेखेद ॥३३॥ आगे शिष्य पूछता है कि मोक्ष-सुख अनुभवके विषयमें कौन गुरु होता है ? आचार्य कहते हैं स्वस्मिन् सदभिलाषित्वादभीष्टज्ञापकत्वतः । स्वयं हितप्रयोक्तृत्वादात्मैव गुरुरात्मनः ॥३४॥ अन्वय-स्वयं स्वस्मिन् सदभिलाषित्वात् अभीष्टज्ञापकत्वतः हितप्रयोक्तृत्वात् आत्मनः आत्मा एव गुरुः अस्ति । टीका-यः खलु शिष्यः सदा अभीक्ष्णं कल्याणमभिलषति तेन जिज्ञास्य तदुपायं तं झापयति । तत्र चाप्रवर्तमानं तं प्रवर्तयति स किल गुरुः प्रसिद्धः । एवं च सत्यात्मनः आत्मैव गुरुः स्यात् । कुत इत्याहस्वयमात्मा स्वस्मिन्मोक्षसुखाभिलाषिण्यात्मनि सत् प्रशस्तं मोक्षसुखमभीक्ष्णमभिलषति । मोक्ष सुखं में संपद्यतामित्याका क्षतीत्येवं भयात् । तथाभीष्टस्यात्मना जिज्ञास्यमानस्य मोक्षसुखोपायस्यात्मविषये ज्ञापकत्वादेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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