Book Title: Ishtopadesha
Author(s): Devnandi Maharaj, Shitalprasad, Champat Rai Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 44
________________ १८-१९] इष्टोपदेशः भवन्ति प्राप्य यत्सङ्गमशुचीनि शुचीन्यपि । स कायः संततापायस्तदर्थं प्रार्थना वृथा ॥ १८ ।। अन्वय-यत्सङ्गं प्राप्य शुचोन्यपि अशुचीनि भवन्ति स कायः संततापायः तदर्थं प्रार्थना वृथा। टीका-वर्तते । कोऽसौ, सः कायः शरीरं । किं विशिष्टः, संततापायः नित्यक्षुधाद्युपतापः । स क इत्याह । यत्स येन कायेन सह संबन्धं प्राप्य लब्ध्वा शुचीन्यपि पवित्राण्यपि भोजनवस्त्रादिवस्तून्यशचीनि भवन्ति । यतश्चैवं ततस्तदर्थं तं संततापायं कायं शुचिवस्तुभिरुपकर्तुं प्रार्थना आकाङ्क्षा वृथा व्यर्था, केनचिदुपायेन निवारितेऽपि एकस्मिन्नपाये क्षणे क्षणे परापरापायोपनिपातसम्भवात् । पुनरप्याह शिष्यः-तहि धनादिनाप्यात्मोपकारो भविष्यतीति । भगवन् संततापायतया कायस्य धनादिना यधुपकारो न स्यात्तहि धनादिनापि न केवलमनशनादितपश्चरणेनेत्यपि शब्दार्थः । आत्मनो जीवनस्योपकारोऽनुग्रहो भविष्यतीत्यर्थः । गुरुराह तन्नेति । यत्त्वया धनादिना आत्मोपकारभवनं संभाव्यते तन्नास्ति । यतः अर्थ-जिसके सम्बन्धको पाकर-जिसके साथ भिड़कर पवित्र भी पदार्थ अपवित्र हो जाते हैं, वह शरीर हमेशा अपायों, उपद्रवों, झंझटों, विघ्नों एवं विनाशों कर सहित है, अतः उसको भोगोपभोगोंको चाहना व्यर्थ है ! विशदार्थ-जिस शरीरके साथ संबन्ध करके पवित्र एवं रमणीक भोजन वस्त्र आदिक पदार्थ अपवित्र धिनावने हो जाते हैं, ऐसा वह शरीर हमेशा भूख-प्यास आदि संतापोंकर सहित है। जब वह ऐसा है तब उसको पवित्र अच्छे-अच्छे पदार्थोंसे भला बनानेके लिये आकांक्षा करना व्यर्थ है, कारण कि किसी उपायसे यदि उसका एकाध अपाय दूर भी किया जाय तो क्षण-क्षणमें दूसरेदूसरे अपाय आ खड़े हो सकते हैं ।।१८॥ दोहा-शुचि पदार्थ भी संग ते, महा अशुचि हो जाय। विघ्न करण नित काय हित, भोगेच्छा विफलाय ॥१८॥ उत्थानिका-फिर भी शिष्यका कहना है कि भगवन् कायके हमेशा अपायवाले होनेसे यदि धनादिकके द्वारा कायका उपकार नहीं हो सकता, तो आत्माका उपकार तो केवल उपवास आदि तपश्चर्यासे ही नहीं, बल्कि धनादि पदार्थोंसे भी हो जायगा । आचार्य उत्तर देते हुए बोले, ऐसी बात नहीं है। कारण कि यज्जीवस्योपकाराय, तदेहस्यापकारकम् । यदेहस्योपकाराय, तज्जीवस्यापकारकम् ॥ १९॥ अन्वय-यत् जीवस्य उपकाराय तद् देहस्य अपकारकं ( भवति ), ( तथा ) यद् देहस्य उपकाराय तत् जीवस्य अपकारक ( भवति )। टोका-यदनशनादि तपोऽनुष्ठानं जीवस्य पूर्वापूर्वपापक्षपणनिवारणाभ्यामुपकाराय स्यात्तदेहस्यापकारकं ग्लान्यादिनिमित्तत्वात् । यत्पुनर्धनादिकं देहस्य भोजनाद्युपयोगेन क्षुधाद्युपतापक्षयत्वादुपकाराय स्यात्तज्जीवस्योपार्जनादौ पापजनकत्वेन दुर्गतिः दुःखनिमित्तत्वादपकारकं स्यादतो जानीहि धनादिना नोपकारगन्धोप्यस्ति, धर्मस्यैव तदुपकारत्वात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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