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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ श्लोकध्यावे, कारण कि स्वयं आत्मामें ही उसकी ज्ञप्ति (ज्ञान) होती है । उस ज्ञप्तिमें और कोई करणान्तर नहीं होते । जैसा कि तत्त्वानुशासनमें कहा है- "स्वपरज्ञप्तिरूपत्वात्."
__"वह आत्मा स्वपर-प्रतिभासस्वरूप है। वह स्वयं ही स्वयंको जानता है, और परको भी जानता है । उसमें उससे भिन्न अन्य करणोंकी आवश्यकता नहीं है। इसलिये चिन्ताको छोड़कर स्वसंवित्ति-स्वसंवेदनके द्वारा ही उसे जानो, जो कि खुदमें ही स्थित है। कारण कि परमार्थसे सभी पदार्थ स्वरूप में ही रहा करते हैं। इसके लिये उचित है कि मनको एकाग्र कर चक्षु आदिक इन्द्रियोंकी अपने-अपने विषयों (रूप आदिकों) से व्यावृत्ति करे।" यहाँपर संस्कृत-टीकाकार पंडित आशाधर जीने 'एकान' शब्दके दो अर्थ प्रदर्शित किये हैं। एक कहिये विवक्षित कोई एक आत्मा, अथवा कोई एक द्रव्य अथवा पर्याय, वही है अग्र कहिये प्रधानतासे आलम्बनभूत विषय जिसका ऐसे मनको कहेंगे 'एकाग्र' अथवा एक कहिये पूर्वापर पर्यायोंमें अविच्छिन्न रूपसे प्रवर्तनमान द्रव्य-आत्मा वही है, अग्र-आत्मग्राह्य जपना ऐसे मनको एकाग्र कहेंगे।
सारांश यह है कि जहां कहीं अथवा आत्मामें ही श्रुतज्ञानके सहारेसे भावनायुक्त हुए मनके द्वारा इन्द्रियोंको रोक कर स्वात्माकी भावना कर उसीमें एकाग्रताको प्राप्त कर चिन्ताको छोड़कर स्वसंवेदनके ही द्वारा आत्माका अनुभव करे। जैसा कि कहा भी है-'गहियं तं सुअणाणा."
अर्थ-"उस (आत्मा) को श्रुतज्ञानके द्वारा जानकर पीछे संवेदन (स्वसंवेदन) में अनुभव करे । जो श्रुतज्ञानका आलम्बन नहीं लेता वह आत्मस्वभावके विषयमें गड़बड़ा जाता है । इसी तरह यह भी भावना करे कि जैसा कि पूज्यापाद स्वामीके समाधिशतकमें कहा है-"प्राच्याव्य विषयेभ्योऽहं."
"मैं इन्द्रियोंके विषयोंसे अपनेको हटाकर अपनेमें स्थित ज्ञानस्वरूप एवं परमानन्दमयी आपको अपने ही द्वारा प्राप्त हुआ हूँ।" ॥२२॥
दोहा-मनको कर एकाग्र, सब इंद्रियविषय मिटाय।
आतमज्ञानी आत्ममें, निजको निजसे ध्याय ॥२२॥ यहाँपर शिष्यका कहना है कि भगवन ! आत्मासे अथवा आत्माकी उपासना करनेसे क्या मतलब सधेगा-क्या फल मिलेगा? क्योंकि विचारवानोंकी प्रवृत्ति तो फलज्ञानपूर्वक हुआ करती है, इस प्रकार पूछे जानेपर आचार्य जवाब देते हैं
अज्ञानोपास्तिरज्ञानं, ज्ञानं ज्ञानिसमाश्रयः ।
ददाति यत्तु यस्यास्ति, सुप्रसिद्धमिद वचा ॥२३॥ अन्वय-अज्ञानोपास्तिरज्ञानं, ज्ञानिसमाश्रयः ज्ञानं ददाति "यत्तु तस्य अस्ति तदेव ददाति" इदं सुप्रसिद्धं वचः ।
टीका-ददाति । कासौ, अज्ञानस्य देहादेर्मुढभ्रान्तिः संदिग्धगुर्वादेर्वा उपास्तिः सेवा। कि ? अज्ञानं, मोहभ्रमसंदेहलक्षणं । तथा ददाति । कासौ, ज्ञानिनः स्वभावस्यात्मनो ज्ञानसंपन्नगुर्वादेर्वा समाश्रयः । अनन्यपरया सेवनं । किं ? ज्ञानं स्वार्थावबोधम । उक्तं च,'ज्ञानमेव फलं ज्ञाने, ननु श्लाघ्यमनश्वरम् । अहो मोहस्य माहात्म्यमन्यदप्यत्र मृग्यते" ॥१७५।।
-आत्मानुशासनम् ।
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