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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
श्लोक
यह कहो कि भोगे जा रहे भोगोपभोग तो सुखके कारण होते हैं । इसके लिये यह कहना है कि इन्द्रियोंके द्वारा सम्बन्ध होनेपर वे अतृप्ति यानी बढ़ी हुई तृष्णाके कारण होते हैं, जैसा कि कहा गया है - " अपि संकल्पिताः कामाः ० '
"ज्यों-ज्यों संकल्पित किये हुए भोगोपभोग प्राप्त होते जाते हैं, त्यों-त्यों मनुष्यों की तृष्णा बढ़ती हुई सारे लोकमें फैलती जाती है । मनुष्य चाहता है कि अमुक मिले । उसके मिल जानेपर आगे बढ़ता है कि अमुक और मिल जाय। उसके भी मिल जानेपर मनुष्य की तृष्णा विश्वके समस्त ही पदार्थों की चाहने लग जाती है कि वे सब ही मुझे मिल जायें। परंतु यदि यथेष्ट भोगोपभोगों को भोगकर तृप्त हो जाय तब तो तृष्णारूप सन्ताप ठण्डा पड़ जायगा ? इसलिये वे सेवन करने योग्य हैं | आचार्य कहते हैं कि वे भोग लेनेपर अन्तमें छोड़े नहीं जा सकते, अर्थात् उनके खूब भोग लेनेपर भी मनकी आसक्ति नहीं हटती" जैसा कि कहा भी है
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"दहनस्तृणकाष्ठसंचयैरपि ० '
"यद्यपि अग्नि, घास, लकड़ी आदिके ढेरसे तृप्त हो जाय । समुद्र, सैकड़ों नदियोंसे तृप्त हो जाय, परंतु वह पुरुष इच्छित सुखोंसे कभी भी तृप्त नहीं होता । अहो ! कर्मों की कोई ऐसी ही सामर्थ्य या जबर्दस्ती है ।" और भी कहा है- "किमपीदं विषयमयं०'
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"अहो ! यह विषयमयी विष कैसा गजबका विष है कि जिसे जबर्दस्ती खाकर यह मनुष्य भव भवमें नहीं चेत पाता है ।"
इस तरह आरम्भ, मध्य और अन्तमें क्लेश - तृष्णा एवं आसक्ति के कारणभूत इन भोगोपभोगों को कौन बुद्धिमान् इंद्रियरूपी नलियोंसे अनुभवन करेगा ? कोई भी नहीं ।
यहाँ पर शिष्य शंका करता है कि तत्त्वज्ञानियोंने भोगोंको न भोगा हो यह बात सुनने में नहीं आती है । अर्थात् बड़े बड़े तत्त्वज्ञानियोंने भी भोगोंको भोगा है, यही प्रसिद्ध है । तब 'भोगोंको कौन बुद्धिमान् -तत्त्वज्ञानी सेवन करेगा ?' यह उपदेश कैसे मान्य किया जाय ? इस बातपर कैसे श्रद्धान किया जाय ? आचार्य जवाब देते हैं- कि हमने उपर्युक्त कथन के साथ " कामं अत्यर्थ०” आसक्तिके साथ रुचिपूर्वक यह भी विशेषण लगाया है । तात्पर्य यह है कि चारित्रमोहके उदयसे भोगों को छोड़नेके लिये असमर्थ होते हुए भी तत्त्वज्ञानी पुरुष भोगोंको त्याज्य - छोड़ने योग्य समझते हुए ही सेवन करते हैं और जिसका मोहोदय मंद पड़ गया है, वह ज्ञान-वैराग्य की भावना से इन्द्रियों को रोककर इन्द्रियों को वश में कर शीघ्र ही अपने ( आत्म ) कार्य करनेके लिये कटिबद्ध - तैयार हो जाता हैजैसा कि कहा गया है - " इदं फलमियं क्रिया० "
"यह फल है, यह क्रिया है, यह करण है, यह क्रम - सिलसिला है, यह खर्च है, यह आनुषं गिक ( ऊपरी ) फल है, यह मेरी अवस्था है, यह मित्र है, यह शत्रु है, यह देश है, यह काल है, इन सब बातोंपर ख्याल देते हुए बुद्धिमान् पुरुष प्रयत्न किया करता है। मूर्ख ऐसा नहीं करता ।” ॥१७॥
दोहा - भोगार्जन दुःखद महा, अंत त्यजत गुरु कष्ट हो,
उत्थानिका - आचार्य फिर और भी कहते हैं कि जिस ( काय ) के लिये सब कुछ ( भोगोपभोगादि ) किया जाता है, वह ( काय ) तो महा अपवित्र है, जैसा कि आगे बताया जाता है
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भोजन तृष्णा बाढ़ । को बुध भोगत गाढ़ || १७||
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