Book Title: Ishtopadesha
Author(s): Devnandi Maharaj, Shitalprasad, Champat Rai Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 41
________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् श्लोक पूर्वोपात्तपापक्षयाय । यस्य तु चक्रवर्त्यादेरिवायत्नेन धनं सिध्यति, स तेन श्रेयोऽर्थे पात्रदानादिकमपि करोत्विति भावः । स किं करोतीत्याह — विलिम्पति विलेपनं करोति । कोऽसौ सः । किं तत् स्वशरीरं । केन, पङ्केन कर्दमेन । कथं कृत्वेत्याह-स्नास्यामीति । अयमर्थो, यथा कश्चिन्निर्मलाङ्गं स्नानं करिष्यामीति पङ्केन विलिम्पन्नसमीक्षकारी, तथा पापेन धनमुपायं पात्रदानादिपुण्येन क्षपयिष्यामीति धनार्जने प्रवर्तमानोऽपि । न च शुद्धवृत्त्या कस्यापि घनार्जनं संभवति । तथा चोक्तम् "शुद्ध विवर्धन्ते, सतामपि न संपदः । न हि स्वच्छाम्बुभिः पूर्णाः कदाचिदपि सिन्धवः " ।। ४५ ।। - आत्मानुशासनं । पुनराह शिष्यः - भोगोपभोगायेति । भगवन् यद्येवं धनार्जनस्य पापप्रायतया दुःखहेतुर्वा धनं निन्द्यं तर्हि धनं विना सुखहेतोर्भोगोपभोगस्यासंभवात्तदर्थं धनं स्यादिति प्रशस्यं भविष्यति । भोगो भोजनताम्बूलादिः । उपभोग वस्तुकामिन्यादिः । भोगाश्चोपभोगाश्च भोगोपभोगं तस्मै । अत्राह गुरुः -- तदपि नेति । न केवलं पुण्यहेतुतया धनं प्रशस्यमिति यत्त्वयोक्तं तदुक्तरीत्या न स्यात्, किं तर्हि भोगोपभोगार्थं तत्साधनं प्रशस्यमिति यत्त्वया संप्रत्युच्यते तदपि न स्यात् । कुत इति चेत्, यतः - अर्थ - जो निर्धन, पुण्यप्राप्ति होगी इसलिये दान वह 'स्नान कर लूंगा' ऐसे ख्यालसे अपने शरीरको कीचड़से लपेटता है । करनेके लिये धन कमाता या जोड़ता है, अर्थ - जो निर्धन ऐसा ख्याल करे कि 'पात्रदान, देवपूजा आदि करनेसे नवीन पुण्यकी प्राप्ति और पूर्वोपार्जित पापकी हानि होगी, इसलिये पात्रदानादि करनेके लिये धन कमाना चाहिये', नौकरी खेती आदि करके धन कमाता है, समझना चाहिये कि वह 'स्नान कर डालूंगा' ऐसा विचार कर अपने शरीरको कीचड़ से लिप्त करता है। स्पष्ट बात यह है कि जैसे कोई आदमी अपने निर्मल अंगको 'स्नान कर लूँगा' का ख्याल कर कीचड़से लिप्त कर डाले, तो वह बेवकूफ ही गिना जायगा । उसी तरह पापके द्वारा पहिले धन कमा लिया जाय, पीछे पात्रदानादिके पुण्यसे उसे नष्ट कर डालूँगा, ऐसे ख्यालसे धन कमानेमें लगा हुआ व्यक्ति भी समझना चाहिये। हुआ है कि चक्रवर्ती आदिकोंकी तरह जिसको विना यत्न किये हुए उस धनसे कल्याणके लिये पात्रदानादिक करे तो करे । १८ फिर किसीको भी धनका उपार्जन, शुद्ध वृत्तिसे हो भी नहीं सकता, जैसा कि श्रीगुणभद्राचार्य आत्मानुशासनमें कहा है- 'शुद्धैर्धनैविवर्धन्ते० ' संस्कृत टीका में यह भी लिखा धनकी प्राप्ति हो जाय, तो वह अर्थ - "सत्पुरुषों की सम्पत्तियाँ, शुद्ध हो शुद्ध धनसे बढ़ती हैं, यह बात नहीं है । देखो, नदियाँ स्वच्छ जलसे ही परिपूर्ण नहीं हुआ करती हैं। वर्षा में गँदले पानीसे भी भरी रहती हैं" ॥१६॥ - पुण्य हेतु दानादिको, निर्धन धन संचय | दोहा स्नान हेतु निज तन कुधी, कीचड़से लिम्पेय ॥ १६॥ उत्थानिका - फिर शिष्य कहता है कि भगवन् ! धनके कमानेमें यदि ज्यादातर पाप होता है और दुःखका कारण होनेसे धन निद्य है, तो धनके विना भोग और उपभोग भी नहीं हो सकते, इसलिये उनके लिये धन होना ही चाहिये और इस तरह धन प्रशंसनीय माना जाना चाहिये । इस विषय में आचार्य कहते हैं कि 'यह बात भी नहीं है', अर्थात् 'पुण्यका कारण होनेसे धन प्रशंसनीय है' यह जो तुमने कहा था, सो वैसा ख्याल कर धन कमाना उचित नहीं, यह पहिले ही बताया जा १. अविचारितकार्यकारी | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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