Book Title: Ishtopadesha
Author(s): Devnandi Maharaj, Shitalprasad, Champat Rai Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 20
________________ विषय-सूची १० मंगलाचरण-टीकाकार और मूल ग्रन्थकर्ताका आत्मामें आत्माके चिन्तनरूप ध्यानसे, परीष'स्वयंस्वभावाप्ति' का सपाधान हादिका अनुभव न होनेसे, कर्म-निर्जरा होती है २८ व्रतादिकों की सार्थकता जहाँ आत्मा ही ध्याता और ध्येय हो जाता है। आत्म-परिणामी के लिये स्वर्गकी सहज में ही प्राप्ति ५ वहाँ अन्य सम्बन्ध कैसा? स्वर्ग-सुखोंका वर्णन | मोही कर्मोको बाँधता है, और निर्मोही छूट जाता "सांसारिक स्वर्गादि-सुख भ्रान्त है" इसका कथन ७ है, इसलिए हर तरहसे निर्ममताका प्रयत्न करे ३१ यदि ये वासनामात्र है. तो उनका वैसा अनुभव क्यों नहीं होता? इसका उत्तर-मोहसे ढका मैं एक ममता रहित शुद्ध हूँ, संयोगसे उत्पन्न पदार्थ देहादिक मुझसे सर्वथा भिन्न हैं हुआ ज्ञान वस्तु-स्वरूपको ठीक-ठीक नहीं ३२ जानता है देहादिकके सम्बन्धसे प्राणो दुखःसमूह पाते हैं, मोहनीयकर्मके जाल में फंसा प्राणी शरीर, धन, दारा ___इससे इन्हें कैसे दूर करना चाहिए? को आत्माके समान मानता है | ज्ञानी सदा निःशंक है, क्योंकि उसमें रोग, मरण, जीव-गति वणन, अपने शत्रओं के प्रति भी द्वेषभाव ____ बाल, युवापना नहीं है, ये पुद्गल में हैं ३४ मत करो पुद्गलोंको बार-बार भोगे और छोड़े, ज्ञानीका १२ | राग-द्वेष भावसे आत्माका अहित होता है १३ उच्छिष्ट-झूठेमें प्रेम नहीं संसारमें सूख है तो फिर इसका त्याग क्यों किया कर्म कर्मका भला चाहता है, जीव जीवका, सब जाय ? इसका समाधान अपना अपना प्रभाव बढ़ाते हैं सांसारिक सुख तथा धर्म, आदि, मध्य और | परका उपकार छोड़कर अपने उपकारमें तत्पर __ अन्तमें दुःखदायी है होओ-अपनी भलाईमें लगो 'धनसे आत्माका उपकार होता है, अतः यह | गुरुके उपदेशसे अपने और परके भेदको जो उपयोगी है, इसका समाधान जानता है, वह मोक्षसम्बन्धी सुखका अनुभव धन से पुण्य करूँगा, इसलिये कमाना चाहिए करता है __ ३८ इसका समाधान १८ स्वयं ही स्वयंका गुरु है भोगोपभोग कितने भी अधिक भोगे जायेंगे, कभी अभव्य हजारों उपदेशोंसे ज्ञान प्राप्त नहीं कर तृप्ति न होगी सकता है । सच्चे योगी अपने ध्यानसे चलायशरीरके सम्बन्धसे पवित्र पदार्थ भी अपवित्र हो मान नहीं होते हैं, चाहे कुछ भी हो जावे जाते है-शरीरकी मलिनताका वर्णन- २१ स्वात्मावलोकनके अभ्यासका वर्णन जो आत्माका हित करता है, वह शरीरका अप स्वात्मसंवित्ति बढ़नेपर आत्मपरिणत कारी है और जो शरीरका हित करता है, योगी निर्जन और एकान्तवास चाहता है, अन्य वह जीवका अपकारक ( बुरा करनेवाला ) है २२ सब बातें जल्दी भुला देता है ४४ ध्यानके द्वारा उत्तम फल और जघन्य फल __ इच्छानुसार मिलते हैं ध्यानमें लगे योगीकी दशाका वर्णन आत्मस्वरूप वर्णन आत्मस्वरूप में तत्पर रहने वालेको परमानन्दकी प्राप्ति ४७ मनको एकाग्र कर इन्द्रियोंके विषयाको नष्ट कर परद्रव्योंके अनुराग करनेसे होनेवाले दोषोंका वर्णन ४८ आत्मा ज्ञानी परमानंदमयी होकर अपने-आपमें तत्त्वसंग्रहका वर्णन रमता है तत्त्वका सार-वर्णन अज्ञभक्ति अज्ञानको, ज्ञानभक्ति ज्ञानको देती है, शास्त्रके अध्ययनका साक्षात् और परम्परासे जो जिसके पास होता है, उसे वह देता है २७ | होनेवाले फलका वर्णन ३९ ४२ ४९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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