Book Title: Ishtopadesha
Author(s): Devnandi Maharaj, Shitalprasad, Champat Rai Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 30
________________ इष्टोपदेशः न केवल मोक्षमें, किन्तु यदि स्वर्गमें भी, मनुष्यादिकोंसे बढ़कर उत्कृष्ट सुख पाया जाता है, तो फिर "मुझे मोक्षकी प्राप्ति हो जावे" इस प्रकारको प्रार्थना करनेसे क्या लाभ ?" . संसार सम्बन्धी सुखमें ही सुखका आग्रह करनेवाले शिष्यको 'संसार सम्बन्धी सुख और दुःख भ्रान्त हैं ।' यह बात बतलानेके लिये आवायं आगे लिखा हुआ श्लोक कहते है वासनामात्रमेवैतत् सुखं दुःखं च देहिनाम् । तथाह्य द्वैजयन्त्येते, भोगा रोगा इवापदि ॥ ६ ॥ अन्वय-देहिनां सुखं दुःखं च वसनामात्रम् एव । तथाहि-एते भोगा आपदि रोगा इव उद्वेजयन्ति । . टीका-एतत् प्रतीयमानमैन्द्रियकं सुखं दुःखं चास्ति । कीदृशं वासनामात्रमेव जीवस्योपकारकत्वापकारकत्वाभावेन परमार्थतो देहादावुपेक्षणीये तावानवबोधादिदं ममेष्टमुपकारकत्वादिदं चानिष्टमपकारकत्वादिति विभ्रमाज्जातः संस्कारो वासना इष्टानिष्टार्थानुभवानन्तरमभृतः स्वसंवेद्य आभिमानिकः परिणामः । वासनैव, न स्वाभाविकमात्मस्वरूपमित्यन्ययोगव्यवच्छेदार्थो मात्र इति स्वयोगव्यवस्थापकश्चैवशब्दः । केषामेतदेवंभतमस्तीत्याह-देहिनां देह एवात्मत्वेन गृह्यमाणोऽस्तीति देहिनो बहिरात्मानस्तेषाम । एतदेव समर्थयितुमाह-तथाहीत्यादि । उक्तार्थसमर्थनार्थस्तथाहीति शब्दः । उद्वैजयन्ति उद्वेगं कुर्वन्ति, न सुखयन्ति ते, एते सुखजनकत्वेन लोके प्रतीता भोगा रमणीयरमणीप्रमुखा इन्द्रियार्थाः । के इव, रोगा इव ज्वरादिव्याधयो यथा । कस्यां सत्याम् ? आपदि दुनिवारवैरिप्रभृतिसंपादितदौर्मनस्यलक्षणायां विपदि । तथा चोक्तम्-"मुञ्चाङ्गं ग्लपयस्यलं क्षिप कुतोऽप्यक्षांश्च विद्भात्यदो, दूरे धेहि न हृष्य एष किमभूरन्या न वेत्सि क्षणम् । स्थेयं चेद्धि निरु द्धि गामिति तवोद्योगे द्विषः स्त्री क्षिपन्त्याश्लेषक्रमुकांगरागललितालाविधित्सू रतिम् ॥” अपि च-"रम्यं हम्यं चन्दनं चन्द्रपादा, वेणुर्वीणा यौवनस्था युवत्यः । नैते रम्या क्षुत्पिपासाहितानां सर्वारम्भास्तन्दुलप्रस्थमूलाः ॥" तथा-"आतपे धृतिमता सह वध्वा यामिनिविरहिणा विहगेन । सेहिरे न किरणा हिमरश्मेर्दुःखिते मनसि सर्वमसह्यम् ।।" इत्यादि । अतो ज्ञायते ऐन्द्रियकं सुखं वासनामात्रमेव, नात्मनः स्वाभाविकमाकुलत्व स्वभावम् । कथमन्यथा लोके सुखजनकत्वेन प्रतीतानामपि भावानां दुःखहेतुत्वम् । एवं दुःखमपि । ॥ ६ ॥ __अत्राह पुनः शिष्यः-एते सुखदुःखे खलु वासनामात्रे, कथं न लक्ष्यते इति । खल्विति वाक्यालंकारे निश्चय वा । कथं केन प्रकारेण न लक्ष्यते न संवद्यते, लोकैरिति शेषः । अत्राचार्यः प्रबोधयति अर्थ-देहधारियोंको जो सुख और दुःख होता है, वह केवल कल्पना ( वासना या संस्कार ) जन्य हो है । देखो ! जिन्हें लोकमें सुख पैदा करनेवाला समझा जाता है, ऐसे कमनीय कामिनी आदिक भोग भी आपत्ति ( दुनिवार शत्रु आदिके द्वारा की गई बेचैनी ) के समयमें रोगों ( ज्वरादिक व्याधियों ) की तरह प्राणियोंको आकुलता पैदा करनेवाले होते हैं । यही बात सांसारिक प्राणियोंके सुख-दुःखके सम्बन्धमें है। विशदार्थ-ये प्रतीत ( मालम ) होनेवाले जितने इंद्रियजन्य सुख व दुःख हैं, वे सब वासनामात्र ही हैं। देहादिक पदार्थ न जीवके उपकारक ही हैं और न अपकारक ही। अतः परमार्थसे वे ( पदार्थ) उपेक्षणीय ही हैं। किन्तु तत्त्वज्ञान न होनेके कारण-'यह मेरे लिये इष्ट १. त्यजनीये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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