Book Title: Ishtopadesha
Author(s): Devnandi Maharaj, Shitalprasad, Champat Rai Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 32
________________ -७] . इष्टोपदेशः टोका-नहि नैव लभते परिच्छिनत्ति धातूनामनेकार्थत्वाल्लभेानेऽपि वृत्तिस्तथा च लोको वक्ति यथास्य चित्तं लब्धमिति । किं तत कर्त, ज्ञानं धर्ममिणोः कथञ्चित्तादात्म्यादथंग्रहणव्यापारपरिणत आत्मा। कं, स्वभावं स्वोऽसाधारणो अन्योऽन्यव्यतिकरे सत्यपि व्यंक्त्यन्तरेभ्यो विवक्षितार्थस्य व्यावृत्तप्रत्ययहेतु वो धर्मः स्वभावस्तम् । केषाम्, पदार्थानां सुखदुःखशरीरादीनाम् । किविशिष्टं सत् ज्ञानं, संवृतं प्रच्छादितं वस्तुयाथात्म्यप्रकाशने अभिभतसामर्थ्यम् । केन, मोहेन मोहनीयकर्मणो विपाकेन । तथा चोक्तम्-"मलविद्धमणेव्यक्तिर्यथा नैकप्रकारतः । कर्मविद्धात्मविज्ञप्तिस्तथा नेकप्रकारतः ॥" (लघीयस्त्रये) नन्वमूर्तस्यात्मनः कथं मूर्तेन कर्मणाभिभवो युक्तः ? इत्यत्राह-मत्त इत्यादि । यथा नैव लभते । कोऽसौ, पुमान् व्यवहारी पुरुषः। कं पदार्थानां घटपटादीनां स्वभावम् । किविशिष्टः सन्, मत्तः जनितमदः । कर्मदनकोद्रवैः । पुनराचार्य एव प्राह, विराधक इत्यादि । यावत् स्वभावमनासादयन् विसदृशान्यवगच्छतीति । शरीरादीनां स्वरूपमलभमानः पुरुषः शरीरादीनि अन्यथाभूतानि प्रतिपद्यत इत्यर्थः । अमुमेवार्थ स्फुटयति अर्थ-मोहसे ढका हुआ ज्ञान, वास्तविक स्वरूपको वैसे ही नहीं जान पाता है, जैसे कि मद पैदा करनेवाले कोद्रव ( कोदों ) के खानेसे नशैल-बे-खबर हुआ आदमी पदार्थोंको ठीक-ठीक रूपसे नहीं जान पाता है। विशदार्थ-मोहनीयकर्मके उदयसे ढका हुआ ज्ञान, वस्तुओंके यथार्थ ( ठीक-ठीक ) स्वरूपका प्रकाशन करने में दबी हुई सामर्थ्यवाला ज्ञान, सुख, दुःख, शरीर आदिक पदार्थोंके स्वभावको नहीं जान पाता है। परस्परमें मेल रहनेपर भी किसी विवक्षित ( खास ) पदार्थको अन्य पदार्थोंसे जदा जतलानेके लिये कारणीभत धर्मको ( भावको ) स्व असाधारण भाव कहते हैं। अर्थात् दो अथवा दोसे अधिक अनेक पदार्थों के बीच मिले रहनेपर भी जिस असाधारण भाव (धर्म ) के द्वारा किसी खास पदार्थको अन्य पदार्थोंसे जदा जान सके, उसी धर्मको उस पदार्थका स्वभाव कहते हैं। ऐसा ही अन्यत्र भी कहा है-“मलविद्ध०" "मल सहित मणिका प्रकाश ( तेज ) जैसे एक प्रकारसे न होकर अनेक प्रकारसे होता है, वैसे ही कर्मसम्बद्ध आत्माका प्रतिभास भो एक रूपसे न होकर अनेक रूपसे होता है।" यहाँपर किसीका प्रश्न है किअमूर्त आत्माका मूर्तिमान् कर्मोके द्वारा अभिभव ( पैदा ) कैसे हो सकता है ? उत्तरस्वरूप आचार्य कहते हैं "नशेको पैदा करनेवाले कोद्रव-कोदों धान्यको खाकर जिसे नशा पैदा हो गया है, ऐसा पुरुष घट, पट आदि पदार्थोंके स्वभावको नहीं जान सकता, उसी प्रकार कर्मबद्ध आत्मा पदार्थों के स्वभावको नहीं जान पाता है। अर्थात् आत्मा व उसका ज्ञान गुण यद्यपि अमूर्त है, फिर भी मूर्तिमान् कोद्रवादि धान्योंसे मिलकर वह बिगड़ जाता है। उसी प्रकार अमूर्त आत्मा मूर्तिमान् कर्मोंके द्वारा अभिभूत हो जाता है और उसके गुण भी दब जा सकते हैं ॥ ७॥ शरीर आदिकोंके स्वरूपको न समझता हुआ आत्मा शरीरादिकोंको किसी दूसरे रूपमें ही मान बैठता है। १. विजातीयेभ्योऽन्यपदार्थेभ्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124