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श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
[ श्लोक
अथ विनेयः पुनराशङ्कते --- एवमात्मनि भक्तिरयुक्ता स्यादिति भगवन्नैवं चिरभाविमोक्षसुखस्य व्रतसाध्ये संसारसुखे सिद्धे सत्यात्मनि चिद्रूपे भक्तिर्भावविशुद्ध आन्तरोऽनुरागो अयुक्ता अनुपपन्ना स्याद्भवेत् तत्साध्यस्य मोक्षसुखस्य सुद्रव्यादिसंपत्त्यपेक्षया दूरवर्तित्वादवान्तरप्राप्यस्य' च स्वर्गादिसुखस्य व्रतैकसाध्यत्वात् । अत्राप्याचार्यः समाधत्ते—तदपि नेति । न केवलं व्रतादीनामानर्थक्यं भवेत् । किं तर्हि तदप्यात्मभक्त्यनुप पत्तिप्रकाशनमपि त्वया क्रियमाणं न साधु स्यादित्यर्थः । यतः -
अर्थ-व्रतोंके द्वारा देव पद प्राप्त करना अच्छा है, किन्तु अव्रतोंके द्वारा नरक-पद प्राप्त करना अच्छा नहीं है। जैसे छाया और धूपमें बैठनेवालों में अन्तर पाया जाता है, वैसे ही व्रत और अव्रतके आचरण व पालन करनेवालोंमें फर्क पाया जाता है ।
विशदार्थ - अपने कार्यके वशसे नगरके भीतर गये हुए तथा वहाँसे वापिस आनेवाले अपने तीसरे साथोकी मार्ग में प्रतीक्षा करनेवाले -- जिनमें से एक तो छायामें बैठा हुआ है और दूसरा धूपमें बैठा हुआ है-दो व्यक्तियोंमें जैसे बड़ा भारी अन्तर है, अर्थात् छाया में बैठनेवाला तीसरे पुरुषके आतक सुखसे बैठा रहता है और धूपमें बैठनेवाला दुःखके साथ समय व्यतीत करता रहता है । उसी तरह जबतक जीवको मुक्ति के कारणभूत अच्छे द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव आदिक प्राप्त होते हैं, तबतक व्रतादिकों का आचरण करनेवाला स्वर्गादिक स्थानोंमें आनन्दके साथ रहता है. दूसरा व्रतादिकोंको न पालता हुआ असंयमी पुरुष नरकादिक स्थानों में दुःख भोगता रहता है । अतः व्रतादिकों का परिपालन निरर्थक नहीं, अपितु सार्थक है || ३ ||
दोहा - मित्र राह देखत खड़े, इक छाया इक धूप । व्रतपालनसे देवपद, अव्रत दुर्गति कूप ॥ ३ ॥
शंका- यहाँपर शिष्य पुनः प्रश्न करता हुआ कहता है - "यदि उपरिलिखित कथनको मान्य किया जायगा, तो चिद्रूप आत्मामें भक्तिभाव ( विशुद्ध अंतरंग अनुराग ) करना अयुक्त ही हो जायगा ? कारण कि आत्मानुरागसे होनेवाला मोक्षरूपी सुख तो योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावादिरूप सम्पत्तिको प्राप्तिकी अपेक्षा रखनेके कारण बहुत दूर हो जायगा और बीच में ही मिलनेवाला स्वर्गादि-सुख व्रतोंके साहाय्यसे मिल जायगा । तब फिर आत्मानुराग करनेसे क्या लाभ ? अर्थात् सुखार्थी साधारण जन आत्मानुरागकी ओर आकर्षित न होते हुए व्रतादिकों की ओर ही अधिक झुक जायेंगे |
समाधान - शंकाका निराकरण करते हुए आचार्य बोले - " व्रतादिकोंका आचरण करना निरर्थक नहीं है ।” ( अर्थात् सार्थक है ), इतनी ही बात नहीं, किन्तु आत्म-भक्तिको अयुक्त बतलाना भी ठीक नहीं है । इसी कथन की पुष्टि करते हुए आगे श्लोक लिखते हैं
यत्र भावः शिवं दत्ते, द्यौः कियद् दूरवर्तिनी ।
यो नयत्याशु गव्यूति, क्रोशार्थे कि स सीदति ? ॥ ४ ॥
अन्वय-यत्र भावः शिवं दत्ते तत्र द्यौः कियद् दूरवर्तिनी, यः गव्यूति आशु नयति सः कि क्रोशा सीदति ? |
टीका - यत्रात्मनि विषये प्रणिधाने भावः कर्ता दत्ते प्रयच्छति । किं तच्छिवं मोक्षं, भावकाय भव्यायेति शेषः । तस्यात्मविषयस्य शिवदानसमर्थस्य भावस्य द्यौः स्वर्गः कियद् दूरवर्तिनी कियद्दूरे किपरिमाणे व्यवहितदेशे
१. मध्यलभ्यस्य । २. अयुक्तिः ।
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