Book Title: Ishtopadesha
Author(s): Devnandi Maharaj, Shitalprasad, Champat Rai Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 21
________________ उपसंहार और टीकाकारका निवेदन परिशिष्ट नं. १ मराठी पद्यानुवाद , नं. २ गुजराती , ,, नं. ३ अंग्रेजी अनुवाद The Discourse Divine ५२ | परिशिष्ट नं. ४ अंग्रेजी विस्तृत पद्यानुवाद Happy Sermons७८ ,, नं. ५ मूल श्लोकों की वर्णानुक्रमणिका ९० , नं. ६ उद्धृत श्लोकों गाथाओं और दोहोंकी वर्णानुक्रमणिका 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000008 "ज्ञानी पुरुषोंने दो प्रकारसे बोध दिया है । एक तो 'सिद्धांतबोध' और दूसरा उस सिद्धांतबोधके होने में कारणभूत ऐसा 'उपदेशबोध' । यदि 'उपदेशबोध' जीवके अन्तःकरणमें स्थितिमान न हुआ हो तो, उसे सिद्धांतबोधका मात्र श्रवण भले ही हो, परन्तु उसका परिणमन नहीं हो सकता। सिद्धांतबोध अर्थात् पदार्थका जो सिद्ध हुआ स्वरूप है; ज्ञानी पुरुषोंने निष्कर्ष निकालकर जिस प्रकार अन्त में पदार्थको जाना है, उसे जिस प्रकारसे वाणो द्वारा कहा जा सके उस प्रकार बताया है, ऐसा जो बोध है वह 'सिद्धांतबोध' है । परन्तु पदार्थका निर्णय करने में जीवको अंतरायरूप उसकी अनादि विपर्यासभावको प्राप्त हुई बुद्धि है, जो व्यक्तरूपसे या अव्यक्तरूपसे विपर्यासभावसे पदार्थस्वरूपका निर्धार कर लेती हैं; उस विपर्यास बुद्धिका बल घटनेके लिये, यथावत् वस्तुस्वरूपके ज्ञानमें प्रवेश होनेके लिये, जीवको वैराग्य और उपशम साधन कहे हैं; और ऐसे जो जो साधन जीवको संसारभय दृढ़ कराते हैं, उन उन साधनों संबंधी जो उपदेश कहा है. वह 'उपदेशबोध' है। • • • गृह कुटुम्ब परिग्रहादि भाव में जो अहंता ममता है और उसकी प्राप्ति-अप्राप्तिके प्रसंगमें जो रागद्वेष कषाय है, वही 'विपर्यास बुद्धि' है; और जहाँ वैराग्य उपशमका उद्भव होता है, वहाँ अहंता-ममता तथा कषाय मंद पड़ जाते हैं; अनुक्रमसे नष्ट होने योग्य हो जाते है। गृहकुटुम्बादि भावमें अनासक्तबुद्धि होना 'वैराग्य' है; और उसकी प्राप्ति-अप्राप्तिके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले कषायक्लेशका मंद होना 'उपशम' है । अर्थात् ये दो गुण विपर्यासबुद्धिको पर्यायांतर करके सद्बुद्धि करते हैं; और वह सद्बुद्धि, जीवाजीवादि पदार्थको व्यवस्था जिससे ज्ञात होती है ऐसे सिद्धांतकी विचारणा करने योग्य होती है · · ।" -श्रीमद राजचन्द्र 3०००००००००००००००००००००००००००००00000000००००००००००००००००००००००० 80000०००००००००००००००००००००००000000000000000000000000000000000008 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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