Book Title: Ishtopadesha
Author(s): Devnandi Maharaj, Shitalprasad, Champat Rai Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 17
________________ (१४) "मान लें कि चरमशरीरीपन इस कालमें नहीं है, तथापि अशरीरी भावसे आत्मस्थिति है तो वह भावनयसे चरमशरीरीपन नहीं, अपितु सिद्धत्व हैं; और यह अशरीरीभाव इस कालमें नहीं है ऐसा यहाँ कहें तो इस कालमें हम खुद नहीं हैं, ऐसा कहने तुल्य है।" (पत्रांक ४११) अहमदाबादमें आगाखानके बँगलेपर श्रीमद्जीने श्री लल्लुजी तथा श्री देवकरणजी मुनिको बुलाकर अन्तिम सूचना देते हुए कहा था-"हमारेमें और वीतरागमें भेद न मानियेगा।" एकान्तचर्या, परमनिवृत्तिरूप कामना मोहमयी (बम्बई) नगरीमें व्यापारिक काम करते हुए भी श्रीमद्जी ज्ञानाराधना तो करते ही रहते थे और पत्रों द्वारा मुमुक्षुओंकी शंकाओंका समाधान करते रहते थे; फिर भी बीच-बीच में पेढ़ीसे विशेष अवकाश लेकर वे एकान्त स्थान, जंगल या पर्वतोंमें पहुँच जाते थे । मुख्यरूपसे वे खंभात, वडवा, काविठा, उत्तरसंडा, नडियाद, वसो, रालज और ईडरमें रहे थे। वे किसी भी स्थान पर बहुत गुप्तरूपसे जाते थे, फिर भी उनकी सुगन्धी छिप नहीं पाती थी। अनेक जिज्ञासु-भ्रमर उनके सत्समागमका लाभ पानेके लिये पीछे-पीछे कहीं भी पहुँच ही जाते थे। ऐसे प्रसंगोंपर हुए बोधका यत्किंचित् संग्रह 'श्रीमद् राजचन्द्र' ग्रन्थमें 'उपदेशछाया', 'उपदेशनोंध' और 'व्याख्यानसार' के नामसे प्रकाशित हुआ है । यद्यपि श्रीमद्जी गृहवास-व्यापारादिमें रहते हुए भी विदेहीवत् थे, फिर भी उनका अन्तरङ्ग सर्वसंगपरित्याग कर निर्ग्रन्थदशाके लिये छटपटा रहा था। एक पत्रमें वे लिखते हैं-'भरतजीको हिरनके संगसे जन्मकी वृद्धि हुई थी और इस कारणसे जड़भरतके भवमें असंग रहे थे। ऐसे कारणोंसे मुझे भी असंगता बहुत ही याद आती है; और कितनी ही बार तो ऐसा हो जाता है कि उस अमंगताके बिना परम दुःन होता है। यम अन्तकालमें प्राणीको दुःखदायक नहीं लगता होगा, परन्तु हमें संग दुःखदायक लगता है।" (पत्रांक २१७) फिर हाथनोंधमें वे लिखते हैं-"सर्वसंग महास्रवरूप श्री तीर्थकरने कहा है सो सत्य है। ऐसी मिश्रगुणस्थानक जैसी स्थिति कहाँ तक रखनी ? जो बात चित्तमें नहीं सो करनी; और जो चित्तमें है उसमें उदास रहना ऐसा व्यवहार किस प्रकारसे हो सकता है ? वैश्यवेषमें और निर्ग्रन्थभावसे रहते हुए कोटि-कोट विचार हुआ करते हैं।" (हाथनोंघ १-३८) "आकिंचन्यतासे विचरते हुए एकान्त मौनसे जिनसदृश ध्यानसे तन्मयात्मस्वरूप ऐसा कब होऊँगा ?" (हाथनोंध १-८७) संवत् १९५६ में अहमदाबादमें श्रीमद्जीने श्री देवकरणजी मुनिसे कहा था-"हमने सभामें स्त्री और लक्ष्मी दोनोंका त्याग किया है, और सर्वसंगपरित्यागकी आज्ञा माताजी देंगीं ऐसा लगता है ।" और तदनुसार उन्होंने सर्वसंगपरित्यागरूप दीक्षा धारण करने की अपनी माताजीसे अनुज्ञा भी ले ली थी। परन्तु उनका शारीरिक स्वास्थ्य दिन-पर-दिन बिगड़ता गया। ऐसे ही अवसरपर किसीने उनसे पूछा-"आपका शरीर कृश क्यों होता जाता है ?" श्रीमदजीने उत्तर दिया-"हमारे दो बगीचे हैं, शरीर और आत्मा । हमारा पानी आत्मारूपी बगीचेमें जाता है, इससे शरीररूपी बगीचा सूख रहा है।" अनेक उपचार करनेपर भी स्वास्थ्य ठीक नहीं हुआ । अन्तिम दिनोंमें एक पत्र में लिखते है-“अत्यन्त त्वरासे प्रवास पूरा करना था, वहाँ बीचमें सहराका रेगिस्तान संप्राप्त हुआ। सिर पर बहुत बोझ रहा था उसे आत्मवीर्यसे जिस प्रकार अल्पकालमें वेदन कर लिया जाय उस प्रकार प्रयत्न करते हुए, पैरोंने निकाचित उदयरूप थकान ग्रहण की। जो स्वरूप है वह अन्यथा नहीं होता यही अद्भुत आश्चर्य है । अव्याबाध स्थिरता है।" (पत्रांक ९५१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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