Book Title: Ishtopadesha
Author(s): Devnandi Maharaj, Shitalprasad, Champat Rai Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 14
________________ (११) किया वही लिखा है। उसमें कहीं भी कृत्रिमता नहीं है। दूसरेपर प्रभाव डालनेके लिये एक पंक्ति भी लिखी हो ऐसा मैंने नहीं देखा ।... खाते, बैठते, सोते, प्रत्येक क्रिया करते उनमें वैराग्य तो होता ही। किसी समय 'इस जगतके किसी भी वैभवमें उन्हें मोह हुआ हो ऐसा मैंने नहीं देखा ।" व्यवहारकुशलता और धर्मपरायणताका जितना उत्तम मेल मैंने कविमें देखा उतना किसी अन्यमें नहीं देखा।" 'श्रीमद् राजचन्द्र जयन्ती' के प्रसंग पर ईस्वी सन् १९२१ में गांधीजी कहते हैं-"बहुत बार कह और लिख गया हूँ कि मैंने बहुतोंके जीवनमेंसे बहुत कुछ लिया है। परन्तु सबसे अधिक किसीके जीवनमेंसे मैंने ग्रहण किया हो तो वह कवि (श्रीमद्जी) के जीवनमेंसे है । दयाधर्म भी मैंने उनके जीवनमेंसे सीखा है।" खून करनेवालेसे भी प्रेम करना यह दयाधर्म मुझे कविने सिखाया है।" गृहस्थाश्रम वि० सं० १९४४ माघ सुदी १२ को २० वर्षकी आयुमें श्रीमद्जीका शुभ विवाह जौहरी रेवाशंकर जगजीवनदास मेहताके बड़े भाई पोपटलालकी महाभाग्यशाली पुत्री झबकबाईके साथ हआ था। इसमें दूसरोंकी 'इच्छा' और 'अत्यन्त आग्रह' ही कारणरूप प्रतीत होते हैं । विवाहके एकाध वर्ष बाद लिखे हुए एक लेखमें श्रीमदजी लिखते हैं-"स्त्रीके सम्बन्धमें किसी भी प्रकारसे रागद्वेष रखनेकी मेरी अंशमात्र इच्छा नहीं है। परन्तु पूर्वोपार्जनसे इच्छाके प्रवर्तनमें अटका हूँ।" (पत्रांक ७८) ___सं० १९४६ के पत्रमें लिखते हैं-"तत्त्वज्ञानकी गुप्त गुफाका दर्शन करनेपर गृहाश्रमसे विरक्त होना अधिकतर सूझता है।" (पत्रांक ११३) श्रीमद्जी गृहवासमें रहते हुए भी अत्यन्त उदासीन थे । उनकी मान्यता थी--"कुटुंबरूपी काजलकी कोठड़ीमें निवास करनेसे संसार बढ़ता है । उसका कितना भी सुधार करो, तो भी एकान्तवाससे जितना संसारका क्षय हो सकता है उसका शतांश भी उस काजलकी कोठड़ी में रहनेसे नहीं हो सकता, क्योंकि वह कषायका निमित्त है और अनादिकालसे मोहके रहनेका पर्वत है।" (पत्रांक १०३) फिर भी इस प्रतिकूलतामें वे अपने परिणामोंकी पूरी सम्भाल रखकर चले । सफल एवं प्रामाणिक व्यापारी श्रीमदजी २१ वर्षकी उम्रमें व्यापारार्थ ववाणियासे बंबई आये और सेठ रेवाशंकर जगजीवनदासकी कानमें भागीदार रहकर जवाहिरातका व्यापार करने लगे। व्यापार करते हुए भी उनका लक्ष्य आत्माकी ओर अधिक था। व्यापारसे अवकाश मिलते ही श्रीमद्जी कोई अपूर्व आत्मविचारणामें लीन हो जाते थे। ज्ञानयोग और कर्मयोगका इनमें यथार्थ समन्वय देखा जाता था । श्रीमद्जीके भागीदार श्री माणेकलाल घेला. भाईने अपने एक वक्तव्यमें कहा था-"व्यापारमें अनेक प्रकारकी कठिनाइयाँ आती थीं, उनके सामने श्रीमद्जी एक अडोल पर्वतके समान टिके रहते थे। मैंने उन्हें जड़ वस्तुओंकी चिंतासे चिंतातुर नहीं देखा। वे हमेशा शान्त और गम्भीर रहते थे।" जवाहिरातके साथ मोतीका व्यापार भी श्रीमदजीने शुरू किया था और उसमें वे सभी व्यापारियोंमें अधिक विश्वासपात्र माने जाते थे। उस समय एक अरब अपने भाईके साथ मोतीकी आढ़तका धन्धा करता था । छोटे भाईके मनमें आया कि आज मैं भी बड़े भाईकी तरह बड़ा व्यापार करूँ। दलालने उसकी श्रीमद्जीसे भेंट करा दी। उन्होंने कस कर माल खरीदा। पैसे लेकर अरब घर पहुँचा तो उसके बड़े भाईने पत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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