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भारतेन्दु हरिश्चन्द्र 'वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति' में मांस-मदिरा-भक्षकों पर बहुत सुन्दर, मधुर, पर साथ ही गहरा न्यंग्य-प्रहार है। किस प्रकार दुर्व्यसनी अपनी
आभिष-लोलुप जिह्वा को तृप्त करने के लिए शास्त्रों और धर्म के प्रमाण दिया करते हैं, यह इस प्रहसन में स्पष्ट है। इसका नायक है गृद्धराज-मांस भनी । मंत्री, पुरोहित, विदूषक सभो मांस, मदिरा और मैथुन तक का प्रतिपादन करते हैं । स्मृति, भागवत, देवी, देवता-सबके प्रमाण मांस-भक्षण के समर्थन में जुटा दिए जाते हैं। अन्त में मांस-भक्षी गद्धराज, पुरोहित, मन्त्री आदि को यम, जो दण्ड देता है, उसमें भी एक प्रकार का हास्य हे । दुष्टों के दंडित होने पर सामाजिक प्राणी अवश्य आनन्द अनुभव करते
और हँसते हैं। ___ "बढ़े जाइयो ! कोटिन लवा बटेर के नाशक, वेद धर्म प्रकाशक, मंत्र से शुद्ध करके बकरा खाने वाले, दूसरे के मांस से अपना मांस बढ़ाने वाले, सहित सकल समाज श्री गृद्धराज महाराजाधिराज ।” प्रहसन के प्रारम्भ में यह प्रशस्ति बहुत उपयुक्त और हास्यपूर्ण है।
“एहि असार संसार मे चार वस्तु है सार ।
जूमा मदिरा मांस अरु नारी-संग-विहार ।।" पुरोहित के ये शब्द करारे व्यंग्य से श्रोत-प्रोत हैं। श्राशीर्वचन कहते हुए दूसरे अंक में विदूषक प्रवेश करता है : “हे ब्राह्मण लोगो ! तुम्हारे मुख में सरस्वती हंस सहित वास करे और उसकी पूछ मुख में न अटके। हे पुरोहित, नित्य देवी के सामने बकरा मराया करो और प्रसाद खाया करो।" ___यह आशीर्वचन हास्य का बहुत ही बढ़िया नमूना है । 'सरस्वती हंससहित वास करे और उसकी पूछ मुख में न अटके ।' में बहुत अच्छा व्यंग्य है । अर्थात्-जुम 'हंस' को भी खा जानो, जो तुम्हारी इष्ट देवी सरस्वती का वाहन है।
"कण्ठी तोड़ो माला तोड़ो गगा देहु बहाई। अरे मदिरा पीयो खाय के मछरी......
बकरा जाहु चवाई।" 'अन्धेर नगरी' बहुत अच्छा प्रहसन है। यह एक ऐसे राजा के चरित्र का व्यंग्यात्मक चित्र है, जिसके राज में सब वस्तु टके सेर बिकती है
. "अंधेर नगरी अनबूझ राजा टके सेर भाजी टके सेर खाजा ।।