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रंगमंचीय नाटककार
२६१ में चमेली की । इस से प्रमुख कथा और पात्रों का जो प्रभाव सामाजिकों पर पड़ता है, इस कथा के मजाकिया चरित्रों के वार्तालाप और अभिनय से सारे किये-कराये पर पानी फिर जाता है । यद्यपि राधेश्याम जी का हास्य उतना भद्दा, अश्लील और भोंडा नहीं, जितना उन दिनों के रङ्गमंच पर चलता था, फिर भी उसे सुरुचिपूर्ण नहीं कहा जा सकता । तो भी इनकी देन अनुपम है। नारायणप्रसाद 'चेताव
श्री 'बेताब' ने भी रङ्गमञ्चीय नाटक लिखने में पर्याप्त ख्याति प्राप्त की। यह हिन्दी-उर्दू दोनों भाषाओं के विद्वान थे। यह अच्छे कवि भी थे। पारसी-कम्पनियों के लिए ही अधिकतर इन्होंने नाटकों की रचना की। रङ्गमञ्चीय नाटक लिखने में बेताब जी की प्रतिभा खूब चमकी । अपने युग के यह प्रमुख नाटककार थे। पहले-पहल इन्होंने भी उर्दू में ही नाटक लिखने श्रारम्भ किये थे, बाद में हिन्दी-उर्दू-मिश्रित भाषा में नाटक लिखने लगे। इनकी भाषा 'हिन्दुस्तानी' का बहुत अच्छा नमूना कही जा सकती है। 'गोरखधन्धा' इनका प्रथम नाटेक है, जो पहले उर्दू में लिखा गया था, बाद में उसका अनुवाद हिन्दी में किया गया। हिन्दी में इन्होंने 'महाभारत' 'जहरी साँप', 'रामायण', 'पत्नी-प्रताप', 'कृष्ण-सुदामा', 'गणेश जन्म', 'शकुन्तला' आदि नाटक लिखे । नाटक-मण्डलियाँ जब बन्द होने लगी, और फिल्मों का प्रचार बढ़ा तो यह फिल्म-कम्पनियों के लिए लिखने लगे।
उनके नाटकों में वही सब गुण-दोष वर्तमान हैं जो पारसी-रङ्गमन्च-युग के नाटकों में होते थे । दृश्यों का आश्चर्य-जनक होना, अतिमानवीयता, सज्जनदुर्जन का संघर्ष, घटनावली को विचित्रता-सभी इनके नाटकों में मिलेंगी। भाषा दोनों भाषाओं का मिश्रण होती है। पद्यात्मकता का बाहुल्य और अवसर-वेअवसर गानों की उपस्थिति रहती है। इनके नाटकों में 'महाभारत' नाटक की बड़ी धूम रही और यह एक ही नगर में महीनों तक होता रहा । 'शकुन्तला' सम्भवतः इनका अन्तिम नाटक है और यह पृथ्वी थियेटर्स के लिए लिखा गया है। इसका अभिनय भी किया गया था। इनके नाटक कला की दृष्टि से इतने सफल नहीं जितने श्रागा हश्र के। तो भी इनका नाम रङ्गमञ्चीय नाटककारों में विशेष उल्लेखनीय है। इनके द्वारा लिखी गई फिल्में अपने समय में काफी सफल हुई।
बेताब जी औरङ्गाबाद (बुलन्दशहर ) के रहने वाले ब्रह्मभट्ट ( भाट)