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हिन्दी के नाटककार सा परिवर्तन करके सूर्यदेव और अबदुश्शरीफ में से किसी का भी स्थान बनाया जा सकता है।
. प्रभाव की दृष्टि से 'नीलदेवी' 'सत्य हरिश्चन्द्र' के पश्चात् पाता है। इसके सभी दृश्य बहुत संक्षिप्त, प्रभावशाली, उपयुक्त और चुस्त हैं। पहले तीन को छोड़कर सभी दृश्य बड़े प्राणवान हैं। नाटकीय दृष्टि से यह भारतेन्दु का सर्वश्रेष्ठ नाटक कहला सकता है। चौथा दृश्य हँसाते-हसाते लोट-पोट कर देता है। पाँचवे में कौतूहल, जिज्ञासा और अनाशितता बहुत अच्छी मात्रा में हैं। सातवाँ दृश्य करुणा और निराशा की अन्धेरी फैला देता है। आठवें में करुणा और निराशा और भी सघन हो जाती है-राजा सूर्य देव की मौत का समाचार मिलता है। नवें में फिर साहस और वीरता का दृश्य सामने आता है। दसवाँ दश्य अत्यन्त सफल और समष्टि रूप में अमिट प्रभाव डालने वाला है। अमीर अबदुश्शरीफ का वध नीलदेवी उसके सीने पर चढ़कर करती है। अंतिम दृश्य में नाटक के सभी गुण आ गए हैं।
अभिनय की दृष्टि से 'चन्द्रावली' बहुन भद्दी, असफल और निराशाजनक रचना है । इसमें विष्कम्भक और प्रस्तावना निरर्थक हैं। तीसरा अंक निर्माण की दृष्टि से त्रुटिपूर्ण है। संवाद अस्वाभाविक और बहुत लम्बे हैं। न इसमें कार्य व्यापार है, न कोई उद्दश्य । भाषा भी बे-ठिकाने-कहीं व्रजभाषा तो कहीं खड़ी बोली का प्रयोग गद्य-संवादों में भी कराया गया है। . संवाद बड़े-बड़े, प्रेम-प्रलाप के अतिरिक्त कुछ नहीं, जो न कथानक को ही बढ़ाते हैं । न कोई चारित्रिक गुण ही प्रकट करते हैं। ___ विषस्य विषमौषधम्' भाण्ड है, जो अभिनय से कोई संबंध ही नहीं रखता । एक व्यक्ति खड़ा-खड़ा बकता रहे, किस श्रोता में इतना धीरज है कि इस बकवास को सुनता रहे । 'भारत जननी' एकांकी है। अभिनय की दृष्टि से उसमें रंगमंच-सम्बन्धी कोई दोष नहीं। वैसे वह आजकल अभिनीत किया जाय तो किसी काम का नहीं समझा जायगा। प्रतीक रूपकों का अभिनय कभी भी प्रभावशाली नहीं हो सकता । भाव और भावनाओं को व्यक्ति मानकर सामाजिक उसमें श्रानन्द नहीं ले सकता।
अभिनय की दृष्टि से पद्यात्मक संवाद और स्वगत का दोष तो भारतेन्दु के प्रायः सभी नाटकों में मिलता है। यह उस युग का चलन था। आज कल इनको निकाला जा सकता है। - अभिनेयता पर विचार करते हुए एक-दो छोटी-मोटी बातों का भी ध्यान रखा जाता है। अभिनय में अवसर के अनुसार भाषा होनी चाहिए।