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भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
६१ भाषा की दृष्टि से हरिश्चन्द्र ने आधुनिक गद्य का प्रवर्तन किया है। उनका गद्य नाटकों में ही निखरा है । पात्र, स्थिति, चरित्र, भाव श्रादि के अनुरूप ही भाषा भारतेन्दु जी ने लिखी है । यहाँ तक कि मुसलमान पात्रों से उर्दू का प्रयोग कराया है । वीर, करुण, शृङ्गार, हास्य सभी के अनुरूप भाषा लिखने में हरिश्चन्द्र ने प्रशंसनीय सफलता पाई ।
कहीं-कहीं भारतेन्दु जी ने रंगमंच -सम्बन्धी निर्देश भी दिये हैं-
" एक टूटे देवालय की सहन में एक मैली साड़ी पहने बाल खोले भारतजननी निद्रित-सी बैठी है, भारत - सन्तान इधर-उधर सो रहे हैं । भारतसरस्वती आती है । सफेद चन्द्रजोत छोड़ी जाय, गाती हुई, ठुमरी ।"
अभिनेता में नाटक के आकार का भी विचार किया जाता है। नाटक बहुत बड़ा हुआ, तो उसका अभिनय न हो सकेगा। सामाजिक तथा अभिनेता दोनों ही थक जायंगे । इस दृष्टि से हरिश्चन्द्र के सभी नाटक छोटे हैं। किसी के भी अभिनय में डेढ़ घण्टे से अधिक समय नहीं लग सकता | 'नीलदेवी' और 'वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति' ४०-४० पृष्ठों के ही हैं और 'विद्या सुन्दर' ६० पृष्ठ का ।
कार्य-व्यापार और अतद्वन्द्व भी भारतेन्दु के नाटकों में किसी-न-किसी रूप में पाया ही जाता है । 'नीलदेवी', 'सत्य हरिश्चन्द्र' तथा 'विद्या सुन्दर में यह उचित मात्रा में आया है ।