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हिन्दी के नाटककार
जाल-मीठी बात सुनने से हँस-हँस कर पेट फट जाता है।"
ऊपर के प्रसंग में सुरुचिपूर्ण और सरल-विनोद है । जहाँ भी कमला और जाल मिलते हैं प्रसंग विनोद की ओर बह निकलता है। कमला का उदास जीवन क्षण-भर को मुसकान की ज्योति पाकर खिल उठता है। ___ 'बन्धन' में भी हास्य के अच्छे छोटे फेंके गए हैं। छोटे-छोटे बालक रायबहादुर खजान्चीराम की नकलें उतारते हैं। हास्य का अच्छा मसाला जुट जाता है
"चौथा-- इतनी जगह यों ही घेर रखी है न ।
पहला-नहीं, एक कमरे में सेठ साहब की टाँगें रहती हैं, एक में सिर, एक में हाथ ।
दूसरा-तो क्या इनके टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं और फिर जुड़ जाया करते हैं ?
तीसरा-शायद उनका जादू का शरीर है। चौथा-यह रावण की सन्तान हैं रावण की।"
एक अगले दृश्य में बालक सेठ जी का जन्म-दिवस मनाने की नकल करते हैं। वह एक गुड्डा बनाकर उसे सेठ बताते हैं और जन्म-दिवस पर एकत्र होने वाले रईस और कोतवाल बनकर नकल करते हैं। 'जन्म-दिवस गुड्डे का प्राज' इस गाने में भी हास्य की पर्याप्त सामग्री है।
शपथ' में भी प्रेमी जी ने गुदगुदी भरे हास्य की स्थिति जुटाने में खूब सफलता पाई है । उज्जयिनी की एक मधुशाला का दृश्य है। शराबियों की बहक सदा से हास्य का पालम्बन रही है। 'शपथ' में भी मधुशाला का दृश्य दर्शकों को हास्य-विभोर कर देता है। शराबियों के ऊट-पटॉग तर्क-वितर्क, उनकी बे-सिर-पैर की बात-चीत, उनके शास्त्र-ज्ञान और साहित्य-चर्चा का हास्य-गद्गद् चित्र उपस्थित कर दिया गया है। आपसी बहस में दो मद्यप शोर करने लगते हैं। कोलाहल सुनकर मधुशाला का स्वामी श्राता है
"मधुशाला का स्वामी-यह कोलाहल कैसा ?
जयदेव-कोलाहल ! कोलाहल ! भैया कोलाहल किस वस्तु की संज्ञा है ?
धर्मदसा--कोलाहल हालाहल का भाई है। मधु०-बस चुल्लू में उल्लू हो गए।
धर्मदास-तुम मनुष्यों को उल्लू बनाने का व्यवसाय करते हो । अच्छा तो सब प्रकाशित दीपों को वुझा दो ।