Book Title: Hindi Natakkar
Author(s): Jaynath
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 243
________________ २४२ हिन्दी के नाटककार तो उसकी बुरी अवस्था हो गई । सरूपा की अस्वस्थता, चिड़चिड़ापन, तीखापन, नीरसता-सभी का कारण थी वह पूर्व स्मृति । सलिल के रोग का कारण भी वही थी। इन दोनों चरित्रों में मनोवैज्ञानिक विकास भी है। अन्त में दोनों अपनी स्मृतियों का भार उतारकर स्वस्थ हो जाते हैं। __ चरित्र-चित्रण के लिए पात्र के कार्य-कलाप, संवाद और अन्य पात्र के कथन-सभी का सहारा लिया गया है। 'खिलौने की खोज' में केवल सरूपा के विषय में और 'वीरबल' में हसीना और गोमती या ग्रामीण अकबर के विषय में जो कुछ कहते हैं, वह उनके चरित्रों का उद्घाटन कर देता है। कला का विकास वर्मा जी के नाटकों का प्रारम्भ हिन्दी-नाटकों के विकास-युग में होता है ।- वर्मा जी ने जब नाटक लिखने प्रारम्भ किये, उनके सामने बीस वर्ष का विकसित हिन्दी-नाटक-साहित्य था । वर्मा जी के नाटकों में उलझन नहीं है । दृश्य-विधान सरल और सीधा है। प्राचीन नाटकों का प्रभाव देखने को नहीं मिलेगा । स्वगत, गर्भाक, विष्कम्भक आदि का प्रश्न ही नहीं उठता। लेखक ने इस बात का भी सफल प्रयास किया है कि नाटकों में संघटित घटनावली हो । उपन्यासकार होने के कारण श्राकस्मिकता, कौतूहल-सम्पन्नता और अप्रत्याशितता भी पर्याप्त मात्रा में है। 'राखी की लाज' में चम्पा सहसा मेघराज को राखी बाँध देती है और चम्पा के पिता के घर पर डाका पड़ने के समय वह उसकी रक्षा करता है। दोनों घटनाए दर्शकों के लिए काफी रोमांचक हैं। 'फूलों की बोली' में तो घटनावली की इतनी खासी भीड़ है कि दर्शक श्राश्चर्य, कौतूहल, और प्रसन्नता में डूब जाते हैं। बलभद्र का नारी रूप में अाना। यज्ञ-कुण्ड से प्रकट होना, छुरी से प्रात्म-घात करने का प्रयत्न आदि पर्याप्त च पत्कारी घटनाएं हैं। 'बाँस की फॉस' में भी रेल-दुर्घटना आदि में काफी अाकस्मिकता है। कार्य-न्यापार की दृष्टि से 'पूर्व की ओर' भी सबल नाटक है । पर उसमें जो समुद्री दृश्य, यान का बहना, डूबना, टूटना श्रादि दिये गए हैं, उनका रंगमंच पर दिखाया जाना असम्भव है। __ घटनावली को इतना महत्त्व दिया गया है कि वे 'फूलों की बोली' में तो एक तमाशा मात्र बनकर रह जाती हैं। बलभद्र का नारी-वेश में श्राना पारसी-रंगमंच की चालीस वर्ष पुरानी कला का नमूना है। इस प्रकार की कला बाल-मतिषष्क के दर्शकों को ही प्रसन्न कर सकती हैं। फिल्मी

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