________________
६४
हिन्दी के नाटककार
है | aaor है । उसके दृश्य इस प्रकार हैं १ - प्रकोष्ठ मे विजया और अनन्त देवी, २-भटार्क का शिविर, ३- न्यायाधिकरण (कश्मीर), ४ - पथ, ५-चतुष्पद, ६ - पथ और ७ - कुटी । दूसरा और तीसरा दृश्य आगे पीछे होने से गड़बड़ पैदा करेंगे | इनको इधर-उधर किया जा सकता है। शेष ठीक हैं। पाँचवाँ अङ्क भी अभिनय को दृष्टि से ठीक लिखा गया है । 'स्कन्दगुप्त' को अभिनीत किया जा सकता है, इससे ऐसी कठिनाई उपस्थित नहीं होगी, जो रंग मंच-निर्माण करने में गड़बड़ पैदा करे ।
अभिनय की दृष्टि से 'चन्द्रगुप्त' नाटक सबसे निराशाजनक और स फल है । दूसरा - श्रन्तिम नाटक होते हुए भी 'प्रसाद' जी ने इसमें अभिनेयता का तनिक भी ध्यान नहीं रखा। लम्बाई में भी सबसे बड़ा, कथोपकथन भी लम्बे और गाने भी ११ - सभी दोषों से पूर्ण । इसका दृश्य विधान सभी नाटकों से अधिक त्रुटिपूर्ण और असफल है । पहले अक में पहला दृश्य है तक्षशिला का गुरुकुल, दूसरा है मगध के सम्राट् का विलास भवन, तीसरा है पाटलिपुत्र का एक भग्न कुटीर और चौथा पथ, पाँचचों नन्द की राज सभा | गुरुकुल का पहला दृश्य भव्य और विशाल दिखाना पड़ेगा । वातावरण उत्पन्न करने के लिए भारतीय संस्कृति का चित्र इसमें उपस्थित करना पड़ेगा, स्थान चाहिए। इसके बाद ही मगध का विलास भवन मा विशाल दृश्य है । शृङ्गार सजावट भी अपेक्षित है । पहले दृश्य का पर्दा गिरते ही तुरन्त खुलना चाहिए। इतनी देर में सामान घटाना कठिन है। गुरुकुल के पीछे बिलाल-भवन बनाना पड़ेगा और उसके पीछे भग्न कुटीर | विलामभवन का पट बन्द करके फिर पीछे का दृश्य - कुटीर शीघ्र ही दिखाना है । दोनों दृश्यों के बीच इतना समय नहीं कि विलास भवन की सामग्री हटाई जा सके। इसके अतिरिक्त मंच पर इतना स्थान कहाँ कि तीनों दश्यों का साथ निर्माण किया जा सके। दूसरे अङ्क का भी यही हाल है । उसमें युद्धक्षेत्र का दिखाया जाना भरत मुनि की भी शक्ति से बाहर है। मंच पर ससैन्य सेल्यूकस और पर्वतेश्वर का प्रवेश, युद्ध आदि दिखाया जाना असम्भव 新 /
'प्रसाद' के अन्य नाटकों में जो नाटकीय गण-कार्य - व्यापार, नाटकीय घटनाओं की पकड़, कौतूहल, रसानुभूति, संघर्ष, नाटकों का प्रारम्भ और अन्त—'चन्द्रगुप्त' में भी हैं; पर दृश्य-विधान त्रुटिपूर्ण है - इसका श्रभि असम्भव है । अन्य नाटकों की अभिनेयता का विवेचन करते हुए प्रसाद के नाटकीय गुण भी अवश्य सहायक होंगे ।