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हरिकृष्ण 'प्रेमी'
१४५ ने 'छाया' और 'बन्धन' दो नाटकों की रचना की।
प्रेमी ने 'छाया' में एक प्रसिद्ध कवि की समाज और राष्ट्र द्वारा उपेक्षित स्थिति का मर्मभेदी चित्र उपस्थित किया है। समाज और व्यक्ति के जीवन-विकास के घुन-शोषण-का इसमें नंगा रूप है। व्यक्ति के के अन्तर की बेबसी, जीवन के अभाव और बाहरी पाखण्ड एवं कृत्रिम रूप का इसमें हाहाकार करता हुआ चित्र है । कवि प्रकाश, जिसकी कविताओं की एक-एक कड़ी पर जनता उन्माद-चंचल हो तालियाँ बजाती है, जिसकी कविताएं राष्ट्र की नसों में प्राणों का रक्त संचालित कर देती हैं. उसकी पत्नी कहीं उससे दूर आगरा के किसी गाँव में पड़ी है-उसकी झोंपड़ी के दीपक में तेल भी नहीं है; पर किसे चिन्ता ! प्रकाश से पैसा वसूल करने वाले कुर्कियाँ ला रहे हैं-"रुपये वालों के दिल नहीं होता। जिन लोगों के घर में लाखों रुपये पड़े हैं, वे भी दो दिन की मौहलत नहीं देते, एक पैसे की भी छूट नहीं देते।"
माया, जो रात को नसीम बनकर, अपने भाइयों को कालेज की शिक्षा और पिता के शानदार विलासी जीवन का क्रम जारी रखने के लिए अपना रूप बेचती है, रेशम की रामनामी से ढके समाज का यथार्थ रूप सामने रखती है-"उधर देखो, उस पलंग की सफेद चादर पर इस नगर के न जाने कितने रईस युवक और बूढ़े भो प्रपने हृदय की कालिमा बिखरा गए है।" ।
छाया, प्रकाश की पत्नी के ये प्रेरक और बड़े-से-बड़े शास्त्र से भी अधिक मानव-हितैषी शब्द, "रुपये को अपने सिर पर न चढ़ने दो मनुष्यो !- रुपये को मनुष्य का सुख न छीनने दो मनुष्यो ! रुपये को मनुष्य का अपमान न करने दो मनुष्यो !" साम्यवाद का सार निकालकर रख देते हैं। ये आर्थिक बुनियाद पर नये समाज का भवन-निर्माण करने का भव्य सन्देश देते हैं और वह पतित जीवन को उत्थान-मार्ग पर अग्रसर करने का भी दिव्य श्रादेश देती है, “पानी को हाथ पकड़ उठाना सीखो, उसके मुख पर अपयश की कालिमा पोतकर नीचे गिराना नहीं ।"
'छाया' में मानव के आर्थिक और सामाजिक दोनों हो प्रकार के जीवन के उत्थान की चेष्टा है । इसमें प्रेमी जी ने 'मानव' को 'साध्य' या 'उद्देश्य' केरूप में देखा है, अन्य नाटकों में वह साधन-मात्र है। इसमें अन्य नाटकों की अपेक्षा चरित्र-विकास भी अत्यन्त सफल और प्रशंसनीय है। 'छाया' में पाहत उपेक्षित मानव को आश्रय देने के लिए 'काम' का आधार प्रदान करने की भी झाँकी है। इसमें काम-समस्या को लिया गया है, यह तो नहीं