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जयशंकर 'प्रसाद'
जन्मेजय ने आर्यराष्ट्र को सबल बनाया और संस्कृति की एक धुंधली झाँकी दिखाई । 'अजात शत्र' में गौतम के रूप में वही आर्य-संस्कृति करुणा की ममतालु मूर्ति बनकर क्षमा, स्नेह, सहानुभूति, संवेदना का सन्देश देते हुए प्रकट हुई।
गौतम कहते हैं-"भूमण्डल पर स्नेह का, करुणा का, क्षमा का , शासन फैलायो। प्रारिण- मात्र में सहानुभूति को विस्तृत करो ।"
यही मानवता का वास्तविक रूप है और यही हमारी महान् संस्कृति की साँस है। ..... "विश्व के कल्याण में अग्रसर हो । असंख्य दुखी जीवों को हमारी सेवा की आवश्यकता है। इस दुख-समुद्र में कूद पड़ो। यदि एक भी रोते हुए हृदय को तुमने हँसा दिया, तो सैकड़ों स्वर्ग तुम्हारे अन्तर में विकसित होंगे।"
-[ गौतम, 'अजातशत्रु' में ] ___ इसी संस्कृति का महान् सन्देश हमारे पूर्वज जीवन-द्रष्टा ऋषि युग-युग से देते आ रहे हैं। शांति का वह शीतल छायादार वृक्ष उन्होंने धरती पर लगाया है, जहाँ भौतिक श्रातप-ताप से झुलसा मानव सुख और सुरक्षा का विश्वास पाता है। ___ इसी मानवता की प्रेरणा के महान् विश्वास को श्रात्मा में विकसित करके हमारे ऋषि विश्व-कल्याण-चिन्तन में लीन निर्भय हो पशु-बल की भर्त्सना करते हैं। विश्व-विजेता का दम्भ लिये सिकन्दर जब दाण्ड्यायन के सामने अाता है, तब दाण्ड्यायन कहता है
"जय-घोष तुम्हारे चारण करेंगे। हत्या, रक्त-पात और अग्निकाण्ड के उपकरण जुटाने में मुझे अानन्द नहीं । विजय-तृष्णा का अन्त पराभव में होता है, अलक्षेन्द्र ।"
जिसके खड्ग की चमक से बड़े-बड़े साम्राज्यों के पैर लड़खड़ा गए, वही सिकन्दर एक वृक्ष की छाया में बैठे नग्न ऋषि की भर्त्सना सुनकर क्या सन्न न रह गया होगा। जो इतनी खरी बात कह सकता है, उसकी संस्कृति में कोई दिन्य गुण अवश्य है, जिसका उसे अवलम्ब है-भरोसा है। रक्त-पात और अग्नि-काण्ड की निन्दा करने वाले की संस्कृति कितनी क्षमाशील होनी चाहिए-कितनी शरणागत-रक्षक होनी चाहिए ! स्कन्दगुप्त के द्वारा दिया गया आश्वासन कितना मनोहर है-''केवल सन्धि-नियम से ही हम लोग बाध्य नहीं हैं, शरणागत की रक्षा करना भी क्षत्रिय का धर्म है।" और इस