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हिन्दी के नाटककार
वृत निशा में वे प्रकाश स्तम्भ के समान खड़े मुसकराते रास्ता दिखाने हैं। बड़ेसे बड़ा त्याग वे देश के लिए-- आर्य मान-मर्यादा के लिए करते हैं । यवनों को पवित्र आर्यावर्त से निकाल देश को स्वाधीन करते हैं । बन्धुवर्मा से वीर और निस्पृह त्यागी, चन्द्रगुप्त-से राष्ट्रोद्वारक, स्कन्द से वैराग्यपूर्ण ममतालु, चाणक्य-से कठोर, त्यागी, कर्मनिष्ठ और निष्काम चरित्रों का चित्रण, प्रसाद की लेखनी की गौरवपूर्ण सफलता है ।
'प्रसाद' के पात्रों में दूसरे छोर की भी एक श्रेणी है - वे भी विशेष वर्ग Tata करते हैं । विकटघोष, प्रपंचबुद्धि, रामगुप्त, भटार्क, श्राम्भीक, तक्षक आदि हमारी घृणा के पात्र हैं । दुष्टता इनकी नस-नस -- छल-कपट और शठता उदाहरण हैं। दुष्ट वर्ग के पात्र भी एकांगी हैं । ये भी भारतीय सिद्धान्तानुसार रस के 'साधारणीकरण' में ही सहायक होते हैं।
जैसे
तीसरी प्रकार के पात्र मनुष्यों के साधारण दोष-गणों से युक्त हैं, शर्वनाग आदि ।
८.
में
भारतीय सिद्धान्त का कठोरता से पालन करते हुए भी 'प्रसाद' के सभी पात्र भाव संघर्ष या श्रन्तर्द्वन्द्व की लहरों में डाँवाडोल होते पाये जाते हैं । वे प्राचीन संस्कृत नाटकों के पात्रों के समान देवत्व या दानवत्व के प्रतीक नहीं । वे धरती के यथार्थ मानव है । 'प्रसाद' के हरएक पात्र के हृदय में द्वन्द्व का तूफान उठता रहता है-वे पाषाण-प्रतिमाए नहीं हैं। उनमें मानवों की निर्बलताए' भी हैं । इसलिए ‘प्रसाद' के चरित्र-चित्रण से व्यक्ति-वैविध्य वाला समीक्षा-सिद्धान्त भी सिद्ध हो जाता है। बिंवसार बन्दीगृह से जय मुक्त किया जाता है तो उसके हृदय की प्रसन्नता और कौतूहल, श्रनाशित सम्मान और श्रजातशत्रु का प्यार प्रकट होता है । "तो शीघ्र चलो (उठकर गिर पड़ता है)
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हो इतना सुख एक साथ में सहन न कर सकूंगा । तुम बहुत बिलम्ब करके श्राये ( काँपता है ) " - से यह स्पष्ट है ।
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"यह साम्राज्य का बोझ किस लिए? हृदय में प्रशान्ति, राज्य में अशान्ति, परिवार में प्रशान्ति । केवल मेरे अस्तित्व से मालूम होता है कि सब की - विश्व भर की शांति रजनी का में ही धूमकेतु हैं, कोई भी मेरे हृदय का आलिंगन करके न रो सकता है, न तो हँस सकता है। तब भी विजयां ओह !” ये स्कन्दगुप्त के मन में उठने वाला तूफान है। जिसके बाणों से यवन-सेनाए ं प्राण लेकर भागती हैं, जो मौत से भी लड़ सकता है, उसका हृदय कितना जर्जर है ।