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भारतेन्दु हरिश्चन्द्र है। 'विद्या सुन्दर' का प्रेम बहुत हल्का रह गया है, इसमें सूफ़ियों के प्रेमजैसी सघनता, तड़प और विरह-व्यथा नहीं आ पाई है।
प्रेम-सिद्धान्त का प्रतिपादन करने के लिए भारतेन्दु ने 'चन्द्रावली' की रचना को। इसमें कृष्ण के प्रति चन्द्रावली का प्रेम दिखाया गया है। चन्द्रावली ब्रज की हा, उसी युग को एक गोपिका है, जो कृष्ण के प्रेम में पागल रहती है। कुल-मर्यादा त्यागकर वह कृष्ण के पीछे दीवानी है, यही इस नाटक में दिखाया गया है। इसमें प्रेस की पद्धति वही है, जो कृष्णोपासक भक्तों ने रखी है। न इसमें मर्यादा है, न लोक-लाज और न कुल-धर्म का भय ।
"देखो दुष्ट को मेरा हाथ छुड़ाकर भाग गया, अब न जाने कहाँ खड़ा बंसी बजा रहा है । अरे छलिया कहाँ छिपा है ? बोल, बोल, कि जीते जी न बोलेगा।" ऐसे अनेक प्रलाप चन्द्रावली के मुंह से जब-तब निकलते रहते हैं। अनेक स्थलों पर उसके प्रेम की तन्मयता भी प्रकट होती हैचन्द्रावली के सघन विरह के चित्र बहुत प्रभावशाली बनकर आए हैं : "आँखें बहुत प्यासी हो रही है । इनको रूप-सुधा कब पिलायोगे? प्यारे, बेनो की लट बॅध गई है इन्हें कब सुलझायोगे ? ( रोती है ) नाथ ! इन आँसुओं को तुम्हारे बिना कोई पोंछने वाला नहीं है।"
पर कुल मिलाकर प्रभाव का ध्यान करें तो यह प्रेम सिवा अभिनय के और कुछ मालूम नहीं होता। भक्ति के नाम पर वासना की उमड़ती नदी, इस प्रेम में देखी जाती है। कृष्ण जब योगिनी के वेश में आते हैं और चन्द्रावली को पता लगता है, (ललिता के कहने पर) तो वही वासना-विह्वलता, काम-चंचलता और शारीरिक तड़प की तृप्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं मालूम होता।
चन्द्रावली उन्मादावस्था में कृष्ण के गले से लिपट जाती है और कहती है : "पिय तोहि राखौगी भुजन में बाँधि ।” ।
_ 'पापको आँखों में आँसू देखकर मुझसे धीरज न धरा जायगा।" कह कर चन्द्रावली फिर कृष्ण को गले लगा लेती है और इसके बाद विशाखा
और ललिता के अनुरोध से दोनों गल बाँही डालकर बैठ जाते हैं। इस ऊटपटाँग प्रेम-प्रदर्शन का क्या उद्देश्य है, क्या अर्थ, कुछ भी समझना कठिन है । बार-बार आलिंगन बार-बार भुजाओं में कसना और गले लगनालगाना ----यही इसमें प्रेम का अन्त बताया गया है। कितने ही स्थलों पर वासना की उद्विग्नता है, काम की छटपटाहट है और भोग की बेचैनी है। "ऐम बादलों को देख कौन लाज की चादर रग्ब सकती है और कैसे पतिव्रत