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पुत्री प्रसव किया । भाई पुत्र का वध करेंगे, इस डर से देवगर्भा ने अज्ञात रूप से अपना पुत्र नन्दगोपा को देकर उसकी पुत्री ले ली । इस तरह देवगर्भा को दस पुत्र हुए और नन्दगोपा को दस पुत्रियाँ हुई दोनों में अज्ञातरूप में अदल-बदल होता रहा । देवगर्भा के सबसे बड़े पुत्र का नाम वासुदेव था अन्य पुत्र बलदेव, चन्द्रदेव, सूर्यदेव, अग्निदेव, वरुणदेव, अर्जुन, प्रार्जुन, धृत पंडित तथा अंकुर थे । दासी-पुत्र के नाम से ये पुत्र बढ़ने लगे।
बड़े होकर दसों भाई बड़े द्दढ-चित्त और स्वच्छन्द निकले और चारों ओर लूट-पाट करने लगे । प्रजा ने उनके उत्पात से तंग आकर राजा से निवेदन किया । एक दिन उन्होंने राजकोष लूट लिया । अंधकवृष्णि राजा के सामने प्रस्तुत किया गया । प्राण संकट में जानकर अंधकवृष्णि ने राजा से अभयवचन प्राप्त किया और सारा सत्य प्रकट कर दिया। अब कंस उपकंस को अपने प्राणों और कुल की ओर चिन्ता हुई । अमात्यों की मंत्रणा से दसों भाइयों को पकड़कर मार डालने का षडयंत्र रचा गया । चाणूर और मुष्टिक नामक मल्लों से मल्लयुद्ध करने के लिए उन्हें चुनौती भेजी गई । दसों भाई अखाड़े में प्रविष्ट हुए और देखते-देखते बलदेव ने दोनों मल्लों का काम तमाम कर दिया । कंस ने उन्हें पकड़ने की आज्ञा दी उसी क्षण वासुदेव ने उसकी ओर अपना चक्र प्रेरित किया और राजा तथा उसके भाई का सिर धड से अलग हो गया । दर्शक-प्रजा वासुदेव के चरणों पर गिर पड़ी और उसने उन्हें अपना रक्षक घोषित किया ।
इस तरह दसों भाई मामा के राज्य असितांजन नगर के अधिपति बन गए । इसके बाद वे जम्बूद्वीप की दिग्विजय के लिए निकले । अयोध्या के राजा कालसेन को विजित कर वे द्वारावती नगरी पहुँचे । वहाँ उन्हें एक अपूर्व चमत्कार दिखाई पड़ा । ज्यों ही वे द्वारावती पर आक्रमण करते वह नगरी अदृश्य हो जाती, उनके लौटते ही वह यथापूर्व दश्यमान होने लगती । अन्त में निराश होकर दसों भाई निकटस्थ कृष्ण द्वैपायन मुनि के पास गए और सहायता की याचना की । मुनि ने चमत्कार का रहस्य बताते हुए उन्हें द्वारावती के रक्षक गर्दभ भेषधारी यक्ष के पास भेजा और उसकी अनुकम्पा से युक्ति सीखकर वे द्वारावती पर अधिकार करने में सफल हुए।
समस्त जम्बूद्वीप को अधिकृत कर दसों भाइयों ने उसे दस भागों में बाँट लिया और एक-एक भाग पर राज्य करते हुए वे द्वारावती में रहने लगे। बाद में अंकुर ने अपना भाग बहिन को सौंप दिया और वह स्वयं व्यापार में लग गया ।
19 • हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास