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संकलित किए जा सके । बारहवाँ अंग ग्रन्थ दृष्टिवाद तथा चौदह पूर्वी का ज्ञान निःशेष हो गया । जो अंग ग्रंथ संकलित किये जा सके, उनकी प्रामाणिकता को लेकर भी मतभेद हो गया । भद्रबाहु स्वामी के साथ मगध से जो साधु संघ चला गया उसने इसे प्रामाणिक स्वीकार नहीं किया । इस प्रकार सूत्र की प्रामाणिकता को लेकर महावीर का अनुयायी साधु संघ दो वर्गों में विभक्त हो गया । एक वर्ग-श्वेतांबर सम्प्रदाय-उपलब्ध ग्यारह अंग ग्रन्थों को प्रामाणिक स्वीकार करता है । जबकि दूसरा वर्ग (दिगम्बर सम्प्रदाय) समस्त आगम साहित्य को विच्छिन्न मानता है।
___ श्वेतांबर सम्प्रदाय द्वारा मान्य आगमिक साहित्य का वर्तमान में उपलब्ध संकलन आचार्य देवर्दिगणि की अध्यक्षता में आयोजित श्रमण संघ (ई. सन्. ४५३-४६६, स्थान-वलभीनगर, काठियावाड-गुजरात) द्वारा किया गया था । इस प्रकार श्वेतांबर सम्प्रदाय द्वारा प्रामाणिक स्वीकार किया जानेवाला आगमिक साहित्य महावीर-निर्वाण के लगभग एक हजार वर्ष के बाद संकलित हुआ था।
श्वेतांबर मर्तिपूजक इनमें पैंतालीस ग्रन्थों को प्रामाणिक मानते हैं । जबकि श्वेतांबर स्थानकवासी तथा तेरापंथी मात्र बत्तीस ग्रन्थों को प्रामाणिक रूप में स्वीकार करते हैं। (क) प्राकृत जैन कृष्ण-साहित्य -
ब्राह्मण धर्म के हास के साथ-साथ संस्कृत भाषा का महत्त्व भी घटा और लोक-प्रचलित भाषाओं को प्रश्रय मिला । वर्धमान महावीर और गौतमबुद्ध ने अर्धमागधी प्राकृत को अपने उपदेशों का माध्यम बनाया तथा शिक्षित वर्ग में भी प्राकृत भाषा का प्रयोग होने लगा । अतः भारतीय मध्ययुग की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक आदि तथ्यों की सम्यक् जानकारी प्राकृत वाङ्मय से जितनी सम्भव है उतनी किसी अन्य साहित्य से नहीं । प्राकृत साहित्य का इस दृष्टि से विशेष महत्त्व है।
जैन धर्म सम्बन्धी अधिक रचनाएँ अर्धमागधी प्राकृत में उपलब्ध होती हैं । इसमें सिद्धान्त-ग्रन्थ तथा टीकाएँ, दोनों सम्मिलित हैं । विद्वानोंने १- जैनधर्म : श्री कैलाशचन्द शास्त्री, पृ ४०५ २- आगम-साहित्य के संक्लन के निम्न प्रयत्न हुएप्रथम - महावीर-निर्वाण के १६० वर्ष बाद (ई.सन् पूर्व २६७ में) स्थूलभद्राचार्य की
अध्यक्षता में पाटलीपुत्र में द्वितीय - ई.सन् ३२७-३४० के मध्य मथुरा में स्कन्दिलचार्य की अध्यक्षता में एवं
तृतीय ई.सन् ४५३-४६६ के मध्य वल्लभी में आचार्य देवगिणी की अध्यक्षता में । इस समय यही संक्लन उपलब्ध माना जाता है।
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास • 22