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(५) प्रद्युम्न चरित
प्रद्युम्न चरित कवि सधारु की रचना है । यह कृति संपादित होकर प्रकाशित हो गई है। इसका रचनाकाल सन् १३५४ सं० १४११ माना गया है ।
कृति में श्रीकृष्ण के रुक्मिणी से उत्पन्न पुत्र प्रद्युम्न का जीवन-चरित का वर्णन है।
कृष्ण का वर्णन एक महान शक्तिशाली नरेश के रूप में किया गया है । वे अपरिमित दलबल व साधनों से सम्पन्न थे । वे त्रिखण्डाधिपति (अर्धचक्रवर्ती) राजा थे । उनकी गर्जना से पृथ्वी काँप जाती थी । वे अपने शत्रुओं के दमन में पूर्णतः समर्थ थे । यथादलबल साहण गणत अनन्त । करह गर्ज मेदनी विलसंतु ।
तीन खण्ड चक्रकेसरी राउ । अरियण दल भानह भरिवाउ ॥३ कृष्ण का स्वरूप-वर्णन करते हुए कवि लिखता है कि वे शंख चक्र तथा गदा धारण करते हैं । बलभद्र उनके अग्रज हैं । वे अद्वितीय पराक्रम सम्पन्न हैं । सात ताल वृक्षों को एक बाण से गिराने में समर्थ हैं । वे अपने कोमल हाथों से वज्र को भी चूर-चूर कर सकते हैं । यथासंख चक्र गजापहण जासु, अरु बलिभद्र सहोदर तास। .
सात ताल जो बाणानि छणई सो नारायण नारद भणई ।। आयी ताहि वज्र मुंदड़ी, जोहइ रतन पदारथ जड़ी।
कोमलि हाथ करह चकचूरु, सो नारायण गुण परिपूनु ॥४. __ पराक्रमी राजा कृष्ण अपनी तलवार हाथ में लेकर युद्ध भूमि में ऐसे शोभित होते हैं जैसे मानों स्वयं यमराज उपस्थित हैं । उनके खड्ग धारण करने पर समस्त लोक आकुल-व्याकुल हो जाता है । स्वयं देवराज इन्द्र तथा शेषनाग भी व्याकुल हो जाते है । यथा“तव तिहि धनहर घालिउ रालि, चन्द्र हँस कर लीयो संभालि ।
वीजु समिसु चमकइ करवालु, जाणौ सु जीभ पसारे काल ।। जबहि खरग हाथ हरि लयउ, चन्द्र रयणि चाम्बह कर गहिउ ।
रथ ते उतरि चले भर जाम, तीनी भुवन अकुलाने ताम ।।। १- प्रद्युम्न चरित : संपा० पं० चैनसुखदास व डॉ० कस्तुरचन्द कासलीवाल
(प्रकाशक-अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी प्रबन्धकारिणी समिति, जयपुर ।) २- प्रद्युम्न चरित : प्रस्तावना, पृ० २६ । ३- प्रद्युम्न चरित : सर्ग-१/२१ । ४- वही, छन्द ५१-५२ ।
96 • हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वस्प-विकास