Book Title: Hindi Jain Sahitya Me Krishna Ka Swarup Vikas
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshva Prakashan

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Page 146
________________ इन विद्वानों द्वारा गोपा शब्द की व्युत्पत्ति गो, गोप और कृष्ण के सम्बन्ध को पुष्ट करती है। ऋग्वेद में अन्यत्र अनेक सींगों वाली गायों से युक्त उच्चलोक की कल्पना की गई है जिसे विष्णु का परमपद कहा गया है । वैष्णव पुराणों के गोलोक, वृन्दावन और गोकुल की मूल उद्भावना का आभास भी इन ऋक् में पाया जा सकता है। उत्तर वैदिक साहित्य में भी कृष्ण और विष्णु की अभिन्नता को सिद्ध करने वाले कुछ प्रमाण मिलते हैं । तैतिरीय आरण्यक (१०, १, ६) में वासुदेव एवं विष्णु की अभिन्नता के उल्लेख विद्यमान है । बौधायन धर्मसूत्र में विष्णु को गोविन्द और दामोदर कहा गया है जो कृष्ण के ही उपनाम हैं । कृष्ण का दूसरा रूप दार्शनिक है जिसका विकास उपनिषदों से आरम्भ हुआ । छान्दोग्योपनिषद में कृष्ण घोर आंगिरस ऋषि का शिष्य और देवकी का पुत्र बताया गया है । इस उपनिषद के अध्याय ३, खण्ड १७ में आत्मयज्ञोपासना का वर्णन है । इस यज्ञ की दक्षिणा के रूप में तप, दान, आर्जव (सरलता), अहिंसा, और सत्य वचन का उल्लेख है। यह यज्ञ-दर्शन घोर आंगिरस ऋषि ने देवकी पुत्र कृष्ण को सुनाया था । इस. उपदेश को सुनकर कृष्ण की अन्य विद्याओं के विषय में कोई तृष्णा नहीं रही, अर्थात् उनकी जिज्ञासा शान्त हो गई और उन्हें कुछ जानना शेष नहीं रहा । घोर आंगिरस ने कृष्ण को यह भी उपदेश दिया था कि अन्तकाल में उन्हें तीन मंत्रों का जप करना चाहिए:- (१) तू अक्षिक्त (अक्षय) है, (२) तू अच्युत (अविनाशी), तथा (३) तू अति सूक्ष्म प्राण है । छान्दोग्य के इस उल्लेख से यह स्पष्ट है कि आंगिरस ने कृष्ण को आत्मवाद का उपदेश दिया था । इस आत्मवाद या आत्मयज्ञ के उपकरण के रूप में तप, दान, आर्जव, अहिंसा और सत्यवचन का उल्लेख है । स्पष्ट ही यह विचारधारा वैदिक यज्ञोपासना से भिन्न प्रकार की थी । वैदिक परंपरागत यज्ञोपासना के बारे में यह मान्य तथ्य है कि वह हिंसा एवं कर्म-काण्ड प्रधान थी; जबकि आत्मयज्ञ की इस धारणा में तप, त्याग, हृदय की सरलता (निष्कपट भाव) सत्य वचन व अहिंसा आदि श्रेष्ठ १- श्रीमती वीणापाणि : हरिवंश पुराण का सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० १३-१४। २- ऋग्० १, १५४-६ ३- राय चौधरी : पृ० ३७ । 132 • हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास

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