Book Title: Hindi Jain Sahitya Me Krishna Ka Swarup Vikas
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshva Prakashan

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Page 177
________________ प्रभावित होकर श्रीकृष्ण के बाल - गोपाल स्वरूप का वर्णन अपने "हरिवंश पुराण" में किया । जिसको आधार मानकर बाद में उसी प्रकार का वर्णन शालिवाहन व खुशालचन्द काला ने अपने हिन्दी भाषा में रचित "हरिवंश पुराण" में किया । जैन साहित्य पर भागवत पुराण में वर्णित कृष्ण के बाल गोपाल स्वरूप का जो वर्णन है, उसका स्पष्ट प्रभाव दिखाई नहीं देता । द्वितीय कृष्ण एक अद्वितीय वीर पुरुष थे । एक चक्रवर्ती राजा के रूप में महानवीर, अद्वितीय पराक्रमी तथा शक्ति - सामर्थ्य से परिपूर्ण शलाकापुरुष थे । अपनी बुद्धि-कौशल के बल पर कृष्ण आधे भरतक्षेत्र के अधिपति, अभिषिक्त हुए और उन्हें वासुदेव के रूप में मान्यता मिली । कृष्ण के समय में भारत वर्ष में सर्वत्र अनीति का साम्राज्य फैला हुआ था । ऐसी परिस्थितियों में रिपुमर्दक श्रीकृष्ण कार्य क्षेत्र में कूदते हैं और अपने अनुपम साहस, असाधारण विक्रम, विलक्षण बुद्धि-कौशल एवं अतुल राजनीतिक पटुता के बल पर आसुरी शक्तियों का दमन करते हैं । ऐसे युद्धों में विजयश्री वरमाला उनके गले में पहनाती है । I जैन ग्रन्थों में कृष्ण का जो तृतीय स्वरूप हमारे सामने आता है वह है धर्मनिष्ठ आदर्श राजपुरुष का रूप । कृष्ण की यह धार्मिक-निष्ठा तीर्थंकर अरिष्टनेमि के सन्दर्भ में वर्णित हुई है । जैन परम्परानुसार कृष्ण तीर्थंकर अरिष्टनेमि के समकालीन ही नहीं, उनके चचेरे भाई भी हैं । वे उनकी धर्म सभाओं में उपस्थित रहने वाले तथा उनके धर्मोपदेश सुननेवाले राजपुरुष के रूप में वर्णित हैं । द्वारकाधीश श्रीकृष्ण का तीर्थंकर अरिष्टनेमि की धर्मसभाओं में उपस्थित होना, तथा उनसे धार्मिक चर्चा करना, शंका-समाधान करना बहुत ही स्वाभाविक रूप में हिन्दी जैन साहित्य में वर्ण है। कृष्ण आदर्श धार्मिक व्यक्ति थे । उनकी धार्मिक निष्ठा के अनेक ऐसे प्रमाण हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि उनका धर्म एवं सत्य अविचलित था । कृष्ण हिंसापूर्ण वैदिक यज्ञों के विरोधी थे और उसके स्थान पर आत्मयज्ञों की विचारधारा को उन्होंने पोषित किया । इस विचारधारा के अनुसार तप, त्याग, हृदय की तरलता, सत्य वचन तथा अहिंसा के आचरण के द्वारा आत्मशुद्धि का मार्ग ही धर्म माना गया । बलदृप्त लोगों की अपेक्षा अधिक बलवान होते हुए भी उन्होंने लोकहित सोचकर सदैव शान्ति के लिए प्रयत्न किया । जो कार्य युद्ध के बिना सम्पन्न हो सकता हो, उसके लिए कृष्ण ने कभी भी युद्ध नहीं होने दिया । कंस का वध करके कृष्ण ने कंस के पिता उग्रसेन को ही राजा बनाया । हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप विकास - • 163

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