Book Title: Hindi Jain Sahitya Me Krishna Ka Swarup Vikas
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshva Prakashan

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Page 131
________________ I जैन साहित्य में वसुदेव के पुत्र को ही वासुदेव नहीं कहा गया है । नौ वासुदेवों में केवल एक श्रीकृष्ण ही वसुदेव के पुत्र हैं, अन्यथा नहीं । दसवें जैन ग्रन्थों के अनुसार हरिवंश की उत्पत्ति इस प्रकार ' है तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ के निर्वाण के पश्चात् और ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ के पूर्व हरिवंश की स्थापना हुई । उस समय वत्स देश में कौशाम्बी नामक नगरी थीं। वहाँ का राजा सुमुख था । उसने एक दिन वीरक नामक एक व्यक्ति की पत्नी वनमाला देखी । वनमाला का रूप अत्यन्त सुन्दर था । वह उस पर मुग्ध हो गया । उसने वनमाला को राजमहलों में बुला लिया । पत्नी के विरह में वीरक अर्द्धविक्षिप्त हो गया । वनमाला राजमहलों में आनन्द क्रीड़ा करने लगी । एक दिन राजा सुमुख अपनी प्रिया वनमाला के साथ वनविहार को गया । वहाँ पर वीरक की दयनीय अवस्था देखकर अपने कुकृत्य के लिए पश्चात्ताप करने लगा - "मैने कितना भयंकर दुष्कृत्य किया है, मेरे ही कारण वीरक ही यह अवस्था हुई है ।" वनमाला को भी अपने कृत्य पर पश्चाताप् हुआ। उन्होंने उस समय सरल और भद्र परिणामों के कारण मानव के आयु का बंधन किया । सहसा आकाश से विद्युत् गिरने से दोनों का प्राणान्त हो गया, और वे हरिवास नामक भोगभूमि में युगल रूप में उत्पन्न हुए । - कुछ समय के पश्चात् वीरक भी मरकर बाल - तप के कारण सौधर्मकल्प में किल्विषी देव बना । विभंगज्ञान से देखा कि मेरा शत्रु "हरि" अपनी प्रिया "हरिणी" के साथ अनपवर्त्य आयु से उत्पन्न होकर आनन्द क्रीड़ा कर रहा है । वह क्रुद्ध होकर विचारने लगा “क्या इन दुष्टों को निष्ठुरतापूर्वक कुचल कर चूर्ण कर दूँ ? मेरा अपकार करके भी ये भोगभूमि में उत्पन्न हुए हैं। मैं इस प्रकार इन्हें मार नहीं सकता । यौगलिक निश्चित रूप से मर कर देव ही बनते हैं, भविष्य में ये यहाँ से मरकर देव न बनें और ये अपार दुःख भोगें ऐसा मुझे प्रयत्न करना चाहिए ।" - " भरतक्षेत्र में चम्पानगरी का । उसने अपने विशिष्ट ज्ञान से देखा नरेश अभी-अभी कालधर्म को प्राप्त हुआ है क्योंकि एक दिन भी आसक्तिपूर्वक किया गया फिर लम्बे समय की तो बात ही क्या है ? अतः इन्हें वहाँ पहुँचा दूँ राज्य दुर्गति का कारण है, देव ने अपनी देवशक्ति से हरियुगल की करोड़ वर्ष की आयु का १ - चउप्पन्न महापुरिस चरियं पृ. १८० । हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास 117

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